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पाकिस्तान के 60 टैंक किये तबाह‚ 1965 की जंग के नायक रहे कर्नल एबी तारापोरे

पाकिस्तान ने जब भी भारत से युद्ध किया है‚ उसे हार ही नसीब हुई है। फिर भी पाकिस्तान है कि मानता नहीं। सीमा पर घुसपैठ करने से वह बाज नहीं आता। सीजफायर का उल्लंघन करने से भी वह नहीं चूकता। पाकिस्तान को 1965 की जंग (India Pakistan war 1965) को याद करना चाहिए। भारतीय सेना ने उस वक्त पाकिस्तान के दांत खट्टे कर दिए थे।

यह 11 सितंबर‚ 1965 का दिन था। सियालकोट सेक्टर में अपनी टुकड़ी की जिम्मेवारी लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बर्जारी तारापोरे (Lieutenant Colonel Ardeshir Burzarji Tarapore) संभाल रहे थे। इसी दौरान उन्हें आदेश मिला कि सियालकोट के फिल्लौरा पर वे धावा बोल दें। चाविंडा को हर हाल में फतेह करना था।

जवानों संग बढ़े आगे

अपने जवानों के साथ एबी तारापोरे ने आगे बढ़ना शुरू किया। दुश्मनों को भनक लग गई। वजीराली क्षेत्र में उनकी ओर से जवाबी कार्यवाही होने लगी। अमेरिका भी तब पाकिस्तान का साथ दे रहा था। अमेरिकी पैटन टैंक से पाकिस्तानी सेना खूब हमला बोल रही थी। तारापोरे ने तब बड़ी बहादुरी दिखाई। दुश्मनों का बखूबी सामना किया।

घायल भी वे इस दौरान हो गए थे। फिर भी युद्ध भूमि से पीठ दिखाकर भागना उन्हें गंवारा नहीं था। वे पूरी बहादुरी से लड़े। उनके नौजवान साथी भी लड़ते रहे। पाकिस्तानी सैनिकों की नाक में उन्होंने दम कर दिया। आखिरकार कब्जा जमाने में यहां वे कामयाब रहे। फिर भी चाविंडा पर कब्जा जमाना तो अभी बाकी था।

पीछे से घेरने की सलाह

फिर आया 14 सितंबर‚ 1965 का दिन। एक कोपर्स ऑफिसर से यह सलाह मिली कि चाविंडा को पीछे से घेरना होगा। पीछे के रास्ते से उसे घेर कर ही शहर पर कब्जा हो पाएगा। हालांकि‚ यह एक बहुत कठिन काम भी था।

तारापोरे ने फिर भी ठान लिया कि वे ऐसा करेंगे। योजना को कामयाब उन्हें बनाना था। 17 हार्स एवं 8 गढ़वाल राइफल्स को उन्होंने जमा होने का आदेश दिया। जसोरन क्षेत्र में वे जमा हुए। युद्ध जबरदस्त हुआ। बहुत कुछ भारतीय सैनिकों को गंवाना पड़ा। फिर भी वे पूरी बहादुरी से लड़े। आखिरकार जसोरन उनके कब्जे में आ ही गया।

इस दौरान आठ गढ़वाल ऑफिसर को अपनी शहादत देनी पड़ी। तारापोरे को चाविंडा को हर हाल में जीतना था। बची हुई जो 17 हाउस की टुकड़ी थी‚ उसके साथ वे वहीं डटे रहे।

पाकिस्तानी टैंकों की अधिक तादाद

पाकिस्तान के टैंक बहुत ही ताकतवर थे। वे अधिक संख्या में भी थे। इधर भारत के पास एक छोटी सेना थी। हालांकि इरादे इनके बड़े ही मजबूत थे। दुश्मनों के तो उन्होंने पसीने छुड़ा दिए थे। पाकिस्तान के टैंकों को लगातार भारतीय सैनिक तबाह कर रहे थे। जबरदस्त युद्ध दोनों ओर से चल रहा था।

भारत के भी सैन्य अधिकारी इधर तैयार थे। तारापोरे की सहायता के लिए 43 टैंकों की एक टुकड़ी उन्होंने रवाना कर दी थी। हालांकि‚ जब तक यह टुकड़ी पहुंचती तब तक बहुत देर हो गई थी। जो नौजवान तारापोरे के साथ बचे थे‚ उनका वे उत्साह बढ़ा रहे थे। वे खुद बुरी तरीके से घायल हो गए थे। फिर भी अपने जवानों में वे जोश भर रहे थे।

परिस्थितियां प्रतिकूल थीं। फिर भी हिम्मत हारना उन्हें स्वीकार नहीं था। बड़ी जांबाजी उन्होंने दिखाई। युद्ध के मैदान में लगातार वे लड़ते रहे। बड़े ही लाजवाब तरीके से उन्होंने नेतृत्व किया। पाकिस्तान के 60 टैंक भारत के वीर सैनिकों ने तबाह कर दिए। भारत के सिर्फ 9 टैंक बर्बाद हुए थे।

शहीद हुए तारापोरे

तभी पाकिस्तानी सैनिकों की एक गोली तारापोरे को आकर लगी। बहादुरी से लड़ते हुए युद्धभूमि में तारापुर शहीद हो गए। अंतिम दम तक उन्होंने जो बहादुरी दिखाई वह काबिलेतारीफ थी। तारापोरे शहीद हो गए‚ मगर भारत के वीर जवान डटे रहे। दुश्मनों का उन्होंने पूरी बहादुरी से सामना किया। चाविंडा के इस युद्ध में भारत के पांच अधिकारियों की शहादत हुई। इसके अलावा 64 भारतीय सैनिक भी वीरगति को प्राप्त हुए।

तारापोरे ने जो दिलेरी दिखाई‚ भारत सरकार ने उसे पहचाना। तारापोरे को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। तारापोरे के कुशल नेतृत्व की चर्चा आज भी होती है। उनकी बहादुरी के किस्से आज भी अमर हैं।

देश के लिए हुए कुर्बान

टैंकों की संख्या कम होने के बावजूद तारापोरे ने दुश्मनों को नाको चने चबा दिए थे। बहादुर तो तारापोरे बचपन से ही थे। बचपन में ही गाय से उन्होंने अपनी बहन को बचाया था। बख्तरबंद रेजिमेंट में भी वे बहादुरी दिखाकर शामिल हुए थे। देश के लिए अपनी जान कुर्बान करने में तारापोरे को जरा भी हिचक नहीं हुई। ऐसे बहादुर को हमारा सलाम।