कई दिनों से पंजाब और हरियाणा से आये किसानों को दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर रोक दिया गया है और पंजाब के किसान पिछले दो महीने से अधिक समय से पंजाब में जगह-जगह पर केन्द्र सरकार के नए कृषि कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन मोदी सरकार के ऊपर इसका कोई असर नहीं हुआ है। आलम ये हुआ कि किसान सारा सामान लेकर दिल्ली की सीमाओं पर आ गए हैं। लेकिन प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसान हित को इससे लाभ हुआ है। जिस वक्त वो ये बात कह रहे थे उसी समय दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों की पिटाई हो रही थी। ठंड में उनपर वाटर कैनन छोड़ा जा रहा था और वो मजबूर होकर सड़क पर बैठ हुए थे।
हमेशा की तरह इस आंदोलन को तोड़ने के लिए सरकार वही षडयंत्र कर रही है जो गुलामी के दौर में अंग्रेज करते थे। कभी तो इन किसानों को खालिस्तानी कहा जा रहा है तो कबी मुख्तखोर, तो कभी कांग्रेस समर्थक बता कर लोगों को गुमराह किया जा रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो देव दिवाली मना रहे थे। अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र बनारस में लेजर की रोशनी में पांव थिरकाते हुए गीत सुन रहे थे। उनकी कैबिनेट में नंबर दो की हैसियत रखने वाले गृह मंत्री अमित शाह हैदराबाद के नगरपालिका चुनाव में रोड शो कर रहे थे और किसानों को बताया जा रहा था कि उनसे 3 दिसंबर को ही बातचीत हो पाएगी लेकिन दबाव बढ़ता देख एक बार पहले मुलाकात कर ली जो बेनतीजा निकली।
पिछले 30-40 सालों से किसानों की आर्थिक हैसियत लगातार कमजोर होती जा रही है। जब उनकी आर्थिक हैसियत थोड़ी अच्छी थी तो राजनीति में उनकी शह थी। चौधरी चरण सिंह, देवीलाल जैसे बड़े किसान नेता उनकी नुमाइंदगी करते थे। उनके बाद किसानों की नुमाइंदगी करने वाले नेता भी नहीं रहे और ऐसा भी नहीं था कि जब चरण सिंह या देवीलाल थे तब सब कुछ ठीक था, लेकिन ऐसा जरूर था कि उनकी बात सरकार सुनती थी। वे संसद से लेकर विधानसभा तक किसानों की समस्या को मजबूती से सरकार के सामने रखते थे, लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।
पिछले 30 सालों में छोटे किसान मजदूर बन गये और सीमांत किसानों ने किसानी छोड़ दी क्योंकि उनके लिए फसल उगाना बहुत ही महंगा होता गया। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से इतने ज्यादा पलायन का सबसे महत्वपूर्ण कारण यही है क्योंकि वहां खेती-बाड़ी खत्म हो गई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार सरकार तीन फीसदी से भी कम फसल खरीदती है और बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कैश क्रॉप्स नहीं के बराबर हैं जिसके चलते किसानों को लागत मूल्य ही नहीं मिल पाता है। इस मामले में पंजाब और हरियाणा थोड़े तकदीर वाले राज्य रहे हैं।
17वीं लोकसभा में 198 एग्रिकल्चरिस्ट (21.59 फीसदी) सांसद हैं जबकि खुद को किसान लिखने वाले सांसदों की संख्या 38 (4.14 फीसदी ) है। कुल मिलाकर 25 फीसदी से अधिक सांसद ऐसे हैं जो अपने को किसान कहते हैं लेकिन एक भी सांसद ऐसा नहीं है जो कह सके कि ये कानून किसानों को नष्ट कर देगा। इसका कारण ये है कि किसान हित की कोई हैसियत ही नहीं रहने दी गई है जिससे कि सांसद भी उनके साथ खड़ा हो सके। इसका मतलब ये भी है कि किसान हित के पास किसी तरह की कोई आर्थिक ताकत नहीं रह गई है जबकि संसद में सिर्फ 25 (2.73 फीसदी) सांसद ऐसे हैं जो अपने को उद्योगपति कहते हैं, लेकिन इनके हितों को लाभ पहुंचाने के लिए पूरा देश तैयार है।
किसानों की दुर्दशा के पीछे सबसे बड़ा कारण पिछड़ी जातियों के हाथ से सत्ता की बागडोर का फिसल जाना है। अब ये जातियां सिर्फ वोटर बनकर रह गयी हैं और उनके पास आर्थिक ताकत नहीं रह गई। वो अपने एजेंडे पर राजनीति नहीं कर सकती हैं और हां हिन्दुत्व ने उन सबकी भूमिका काफी हद तक सीमित कर दी है। उनकी हैसियत हिन्दुत्व के इर्द-गिर्द ही बची रह गई है। अगर वो वहां से हटते हैं तो उन्हें नष्ट कर दिया जाता है।