लम्बे समय से सरकार की आर्थिक नीति के बावजूद अर्थव्यवस्था की हालत कुछ खास नहीं नहीं है। इन आर्थिक नीति का फयदा जब हमरे देश की अर्थव्यवस्था पे इनका कोई असर ही नहीं होता है। लेकिन इन दिनों बेरोजगारी में इजाफे के साथ ही सबसे बड़ी और बुरी खबर ये है कि आम आदमी को महंगाई से राहत मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। अनाज, दालें, सब्जियां, दूध, चीनी, फल, सब जरूरी वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं। अभी तो कहा जा रहा है कि ये महंगाई का आलम जारी रहेगा। ये सिर्फ महंगाई नहीं है बल्कि बाजार द्वारा सरकार के द्वारा जनता के साथ की जा रही लूट है। ऐसा नहीं है कि महंगाई का कहर कोई पहली बार टूटा हो। महंगाई पहले भी होती रही है। जरूरी चीजों के दाम अचानक से पहले भी बढ़ते हैं, लेकिन कुछ वक्त के बाद नीचे आ जाते हैं। लेकिन इस वक्त तो बाजार में आग लगी है।
इस मामले में आम आदमी लाचार और असहाय हैं, जिस सरकार से आस लगाए हुए है कि वो कुछ करेगी, तो वो सरकार सिर्फ झूठे विकास और राष्ट्रवाद का बेसुरा राग गा रही है। साथ में जनता क आत्मनिर्भर बनने की नसीहत दे रही है। सरकार की नीतियों से महंगाई बढ़ती जा रही है और वो खुद भी आए दिन पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाकर और अपनी इस करनी से आम आदमी के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। हालांकि पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने पर सरकार की ओर से सफाई दी जाती है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें पेट्रोलियम कंपनियां तय करती हैं और उन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है।
ये दलील पूरी तरह बकवास है, क्योंकि हम देखते हैं जब भी किसी राज्य में चुनाव चल रहे होते हैं तो उस दौरान कुछ समय के लिए पेट्रोल-डीजल के दाम स्थिर हो जाते हैं या उनमें मामूली कमी आ जाती है। जैसे ही चुनाव प्रक्रिया खत्म होती है, पेट्रोल-डीजल के दाम फिर बढ़ने लगते हैं। बहरहाल सरकार की ओर से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में उछाल के जो भी स्पष्टीकरण दिए गए हैं, वो विश्वसनीय नहीं हैं। पिछले साल मानसून कमजोर रहा या पर्याप्त बारिश नहीं हुई, ये ऐसे कारण नहीं हैं कि इनका असर सभी चीजों पर एक साथ पड़े।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि कीमतें इतनी ज्यादा होने के बावजूद बाजार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल नहीं हुआ। जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाजारी शुरू हो जाती है। अभी न तो जमाखोरी हो रही है और न ही कालाबाजारी। हो रही है तो सिर्फ और सिर्फ बेहिसाब मुनाफाखोरी। लगता है मानो सरकार या सरकारों ने अपने आपको जनता से काट लिया है।
ये हमारे लोकतंत्र का बिल्कुल नया चेहरा है- घोर जननिरपेक्ष और शुद्ध बाजारपरस्त चेहरा। पहले जब किसी चीज के दाम असामान्य रूप से बढ़ते थे तो सरकारें हस्तक्षेप करती थीं। ये अलग बात है कि इस हस्तक्षेप का कोई खास असर नहीं होता था, क्योंकि उस मूल्यवृद्धि की वजह वाकई उस चीज की दुर्लभता या अपर्याप्त आपूर्ति होती थी। अब तो सरकारों ने औपचारिकता या दिखावे का हस्तक्षेप भी बंद कर दिया है। वो बिल्कुल बेफिक्र हैं।
कुछ साल पहले तक रिजर्व बैंक भी महंगाई को रोकने के लिए काम करता था। अपने स्तर पर कुछ कदम उठाता था, लेकिन अब महंगाई उसकी चिंता के दायरे में नहीं आती है। उसकी स्वायत्ता का अब अपहरण हो चुका है। अब उसका पूरा ध्यान सरकार के दुलारे शेयर बाजार को तंदुरुस्त बनाए रखने और सरकार की आर्थिक नीति की गड़बड़ियों को छुपाने में लगा रहता है।
महंगाई को लेकर सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि समूची राजनीति उदासीन बनी हुई है। पहले जब महंगाई बढ़ती थीं तो उस पर संसद में चर्चा होती थी। विपक्ष सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करता था। सरकार भी महंगाई को लेकर चिंता जताती थी। वो महंगाई के लिए जिम्मेदार बाजार के बड़े खिलाड़ियों को डराने के लिए सख्त कदम भले ही न उठाती हो, पर सख्त बयान तो देती ही थी। लेकिन अब तो ऐसा भी कुछ नहीं होता।
यूपीए सरकार के 10 सालों के कार्यकाल में 16 बार, उससे पहले एनडीए सरकार के 6 सालों में 8 बार महंगाई पर संसद में बहस हुई। लेकिन 17वीं लोकसभा के चार सत्र बीत चुके हैं लेकिन एक में भी महंगाई पर कोई चर्चा नहीं हुई।
अब तो सरकार की ओर से महंगाई को विकास का प्रतीक बताया जाता है और इस पर सवाल उठाने वालों को विकास विरोधी करार दे दिया जाता है। अगर इस महंगाई का कुछ हिस्सा किसानों तक पहुंचता तो बात समझ में भी आती। लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है। इस महंगाई का लाभ तो बिचौलिए और मुनाफाखोर बड़े व्यापारी उठा रहे हैं।
कीमतों का स्वभाव होता है कि एक बार चढ़ने के बाद वे बहुत नीचे नहीं आती। इस बार भी ऐसा ही होने का अंदेशा है। जब कीमतों में बढ़ोतरी रुपी सुनामी की लहरें थम जाएंगी, तब सामान्य स्थिति में भी लोग दोगुनी कीमतों पर आटा, दाल, चावल, चीनी आदि खरीद रहे होंगे। इसलिए अभी अगर सरकार की ओर से कारगर हस्तक्षेप नहीं हुआ तो आने वाले समय पर इस महंगाई की विनाशकारी काली छाया पड़ना तय है। ये हस्तक्षेप अकेले केंद्र सरकार नहीं कर सकती। इसमें राज्य सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। खासतौर पर जमाखोरों, मुनाफाखोरों और कालाबाजारियों पर लगाम कसने के मामले में कमान राज्य सरकारों के हाथों में होती है।