पश्चिम बंगाल के चुनाव अब और भी ज्यादा रोमांचक होते जा रहे हैं। जो कभी टीएमसी और लेफ्ट के बीच में सियासी युद्ध होता था, वो अब भाजपा और टीएमसी में बदल गया है। अभी तक कोई भी पूरे दावे से नहीं कह पा रहा है कि कौन हारेगा और कौन जीतेगा। पश्चिम बंगाल की सियासी लड़ाई में टीएमसी, भाजपा, कांग्रेस और लेफ्ट की चर्चा होना स्वाभाविक है क्योंकि ये सारे राजनीतिक दल बंगाल की राजनीति में पहले से ही मौजूद है।
लेकिन इस चुनाव में अब बाकी राजनीतिक दल भी घुस गए हैं। सबसे पहले इस चुनाव में उतरे हैं असदुद्दीन ओवैसी और अब महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना ने भी इस चुनाव में कूदने का ऐलान कर दिया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता और प्रवक्ता संजय राउत ने इसका ऐलान किया है और ऐलान करने के बाद आखिर में नारा लिखा है जय हिंद, जय बांग्ला।
ये नारा ही अपने आप में एक बहुत बड़ा संकेत है कि शिवसेना अपनी पूरी ताकत के साथ इस चुनाव में कूदने वाली है। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अब कुछ ही वक्त बाकी रह गया है। राज्य में अप्रैल-मई में चुनाव हो सकते हैं। ऐसे में अन्य राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों के आने से कितना समीकरण बदलेगा, इसपर मंथन होने लग गया है। शिवसेना ने पश्चिम बंगाल में साल 2016 का विधानसभा चुनाव भी लड़ा था हालांकि उस चुनाव में शिवसेना ने 294 सीटों में से महज 18 सीट पर चुनाव लड़ा था लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी थी, इस बार शिवसेना 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है।
ओवैसी भी लड़ेंगे पूरे दमखम से चुनाव
वहीं दूसरी तरफ ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम भी बंगाल में पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ने की तैयारी में है। बिहार में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले ओवैसी अब बंगाल में भी वो ही खेल दोहराने की कोशिश कर सकते हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर इन क्षेत्रीय पार्टी के चुनाव में आ जाने से किसे कितना फायदा और किसे कितना नुकसान हो रहा है। पश्चिम बंगाल का चुनाव इस बार भाजपा और टीएमसी के इर्दगिर्द ही घूमता दिखाई पड़ रहा है। हालांकि लेफ्ट और कांग्रेस को कम नहीं आंकना चाहिए पर पुराने रिकॉर्ड देखकर उनसे उम्मीद कम ही है।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा की कुल 294 सीटें हैं, जिसमें साल 2016 के विधानसभा चुनाव में 211 सीटें टीएमसी के खाते में आयी थी, जबकि कांग्रेस के खाते में 44, लेफ्ट के खाते में 26 और भाजपा के खाते में महज 3 सीटें ही आ पाई थी। वोट प्रतिशत की बात की जाए तो लगभग 46 प्रतिशत वोट टीएमसी ने हासिल किए थे, कांग्रेस ने 12 प्रतिशत, लेफ्ट ने 20 प्रतिशत और भाजपा ने 10.5 प्रतिशत वोट हासिल किए थे।
अब इस चुनाव में भाजपा और टीएमसी के बीच कांटे की टक्कर बताई जा रही है। ऐसे में भाजपा राज्य में कितनी मजबूत हुई है इस बात का अनुमान आसानी के साथ लगाया जा सकता है। पश्चिम बंगाल के चुनावी रण में ओवैसी के आ जाने से उनपर आरोप लग रहा है कि वह भाजपा की मदद करने के लिए ही चुनाव लड़ने पहुंचे हैं। क्योंकि उनके कोर वोटर मुसलमान ही है और वो भाजपा विरोधी दलों के वोट काट सकते हैं, जैसा उन्होंने बिहार में किया था।
दोनों दलों के आने से बदलेंगे समीकरण
एआईएमआईएम और शिवसेना दोनों ही पार्टियां पश्चिम बंगाल में शून्य है, लेकिन दोनों की बढ़ती लोकप्रियता वहां के चुनाव में वोटों का बिखराव तो करेंगी ही इतना तय है। चुनाव में ओवैसी गैरभाजपाई वोटों पर निशाना साधेंगें तो शिवसेना कट्टर हिंदुत्व का चेहरा लेकर चुनावी मैदान में कूदेगी जिससे भाजपा को नुकसान हो सकता है।
हालांकि शिवसेना के साथ समस्या ये भी है कि वो कांग्रेस और एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में सरकार में हैं, कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी ये भी लगभग तय माना जा रहा है, ऐसे में कांग्रेस क्या शिवसेना को गठबंधन में शामिल करेगी ये एक बड़ा सवाल है। हालांकि इसकी उम्मीद कम ही दिखाई पड़ती है क्योंकि शिवसेना बंगाल की 100 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है और कांग्रेस गठबंधन इतनी अधिक सीट शिवसेना को देने से रहा।
बंगाल के चुनाव में ओवैसी और शिवसेना के कूदने से फर्क तो पड़ेगा लेकिन कितना ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा फिलहाल एक बात तय है चुनाव में रोमांच भरपूर होगा। अब देखना ये भी है कि ओवैसी की पार्टी भाजपा का कितना नफा कराती है और शिवसेना भाजपा का कितना नुकसान।