मोदी सरकार का कहना है कि वो सिख समुदाय के समर्थन में कई कदम उठाते हैं, इससे जुड़ी एक बुकलेट भी जारी की गई है। मोदी सरकार का कहना है कि उन्होंने जो कदम उठाएं हैं उनमें करतारपुर साहिब कॉरिडोर, लंगर पर करों में छूट, हरमिंदर साहिब के लिए एफसीआरए का रजिस्ट्रेशन, 1984 दंगों के पीड़ितों के लिए न्याय शामिल हैं। हालांकि इस पर चर्चा की जा सकती है कि क्या असल में इन कदमों में मोदी सरकार का योगदान है या नहीं। जरूरी बात तो ये है कि जब सिख मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ मोर्चा ले रहे हैं तब उन तक इस तरीके से पहुंचने की कोशिश हो रही है।
ये कहना गलत नहीं होगा कि मोदी सरकार की लोकप्रियता सिख समुदाय के बीच में पिछले 2 दशकों में सबसे कम है। क्योंकि दिल्ली की सीमा पर करीब एक लाख से ज्यादा सिख किसान विरोध कर रहे हैं। सरकार की तरफ से अवॉर्ड जीतने वाली सिख हस्तियों ने अपने पुरस्कार भी लौटा दिए हैं। सिखों की शीर्ष संस्था अकाल तख्त ने मोदी सरकार के कृषि कानूनों की निन्दा की है, आरएसएस को विभाजनकारी बताते हुए उसकी आलोचना की है।
यहां इसने तक कि इस साल की शुरुआत में इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की थी। पंजाबी गायक मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए गाने बना रहे हैं, कलाकारों ने विरोध प्रदर्शन में सक्रियता से हिस्सा लिया है, सोशल मीडिया के स्टार ऐसे वीडियो पोस्ट कर रहे हैं जिसमें मोदी को बुरा-भला बताया जा रहा है और आम सिख भी अपनी नाराजगी खुल कर जाहिर कर रहा है।
ये महज किसानों का विरोध प्रदर्शन नहीं है बल्कि प्रदर्शनकारियों को लगातार देश विरोधी और खालिस्तानी करार दिए जाने के अभियान ने सिखों का दिल तोड़ दिया है। राजनीतिक जगत की बड़ी हस्ती और पांच बार पंजाब के मुख्यमंत्री रहे प्रकाश सिंह बादल ने मोदी सरकार की ओर से उन्हें दिया गया दूसरा सबसे प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्म विभूषण लौटा दिया है।
केंद्र सरकार और सिखों के बीच साल 1990 के दशक से वो लगातार सेतु बने रहे हैं। उनकी पार्टी शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने भाजपा के साथ 23 साल पुराना गठबंधन खत्म कर लिया है और, पार्टी प्रमुख सुखबीर बादल ने आरोप लगाया है कि वास्तव में टुकड़े-टुकड़े गैंग भाजपा है जो हिन्दुओं और सिखों को बांटने की कोशिश में जुटी है।
अब किसानों का विरोध प्रदर्शन सिर्फ सिखों का विरोध नहीं रह गया है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड से हजारों किसान भी दिल्ली और आसपास प्रदर्शन कर रहे हैं। कई दूसरे राज्यों के किसान भी उनके आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं। लेकिन यह साफ है कि सिखों के लिए इस पूरे विरोध प्रदर्शन का मतलब अलग है। इतिहास में सिखों ने लगातार तानाशाही शासकों का विरोध किया है और मोदी आज वहीं खड़े हैं जहां 400 साल पहले औरंगजेब और चार दशक पहले इंदिरा गांधी खड़ी थीं।
क्योंकि पंजाबी प्रदर्शनकारी पंजाब के इतिहास मे दर्ज बगावतों की याद दिला रहे हैं, तो साल 1783 में दिल्ली पर कब्जा करने वाले बघेल सिंह से लेकर करतार सिंह सराभा, भगत सिंह और उधम सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानी तक को याद रखना जरूरी है। इसलिए, भाजपा सरकार की तुलना मुगलों और अंग्रेजों से हो रही है। सिख आगे बढ़ रहे हैं और मोदी सरकार मुख्य शत्रु बनी दिखाई दे रही है। लेकिन यह असंतोष केवल कृषि कानून तक सीमित नहीं है।
सीएसडीएस के प्री पोल सर्वे के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनावों से पूर्व मोदी को सबसे अधिक नापसंद करने वाले सिख थे। यहां तक कि मुसलमानों से भी ज्यादा सिख मोदी को नापसंद करते थे। इस सर्वे के मुताबिक 68 फीसदी सिखों ने कहा था कि मोदी को पीएम के तौर पर दोबारा मौका नहीं मिलना चाहिए। हिन्दुओं में ऐसे लोग 31 फीसदी थे तो 56 प्रतिशत मुसलमान और 62 फीसदी लोग ईसाई समुदाय से थे। 51 प्रतिशत हिन्दुओं के मुकाबले केवल 21 प्रतिशत सिख मोदी को दोबारा पीएम देखना चाहते थे।
पंजाब ऐसा प्रदेश था जहां पर पुलवामा हमले और बालाकोट स्ट्राइक के बाद भाजपा की ओर से उछाले गये राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल का सबसे कम असर दिखा था। यहां तक कि महामारी के दौरान भी सी वोटर के सर्वे के मुताबिक मोदी सरकार के प्रदर्शन को लेकर सबसे ज्यादा असंतोष किसी अन्य समुदाय के मुकाबले सिखों में था।
असल समस्या ये है कि मोदी, अमित शाह और यहां तक कि आरएसएस ने कभी सिखों को ठीक से नहीं समझा। प्रतीकात्मक उपाय सिखों पर कम ही असर दिखाते हैं। साल 1980 के दशक में सिख राष्ट्रपति होने के बावजूद सिख समुदाय में असंतोष कम करने में कोई मदद नहीं मिली और खासकर ऐसे समय में जब सरकार खुलकर अपनी नीतियां सामने नहीं रख सकीं।
साल 2007 और 2012 में कांग्रेस को पंजाब में दो लगातार विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा। ये वो समय था जब पार्टी ने देश को पहला सिख प्रधानमंत्री दिया था। ऐसा नहीं था कि सिख तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को नापसंद करते थे बल्कि बात इतनी सी थी कि प्रतीकवाद का उनके लिए कोई महत्व नहीं था और उन्होंने अपने राज्य के लिए जरूरी बातों पर अपना फैसला सुनाया था।
इसकी मूल वजह ये है कि साल 1984 के सदमे और ऑपरेशन ब्लू स्टार ने बहुसंख्यक नेताओं के प्रति सिखों में जबरदस्त अविश्वास पैदा कर दिया था, जिनकी कोशिश रहती थी कि केंद्र सरकार का राज्य सरकारों पर प्रभुत्व रहे। पंजाब और खासकर सिखों के लिए संघीय व्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण रहा है। साल 1973 में भी आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के पीछे मूल सिद्धांत यही था। इससे भी ये पता चलता है कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का सबसे ज्यादा विरोध पंजाब में क्यों दिखा था।
ज्यादातर सिख नहीं चाहते कि कोई उन पर रौब दिखाए और जब कभी भी मोदी सरकार ने या फिर हिन्दुत्व के पहरेदारों ने किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपना शिकार बनाना चाहा तो सिख ही बचाव के लिए सामने मोर्चे पर नजर आए। इसका सबूत तब भी मिला जब कश्मीरियों की रक्षा के लिए सिख सामने खड़े दिखे जब पुलवामा हमले के बाद उन पर हमले होने लगे।
यहां तक कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान भी पंजाब के सिख और किसान समूहों ने मुसलमानों के साथ एकजुटता दिखाई। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सिख शरणार्थियों को इस कानून का फायदा मिल रहा था।
फिर जब कोविड-19 महामारी के दौरान नफरती हिंसा में मुसलमानों को निशाना बनाया जाने लगा तो अकाल तख्त जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने सिखों से अपील की कि वो उन लोगों के साथ खड़े रहें जिन्हें निशाना बनाया जा रहा है। अगर सिख किसी अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लिए उस मामले में भी खड़े हो सकते हैं जिससे उसका कोई लेना देना नहीं है तो ये सोचना मूर्खतापूर्ण है कि जिस मुददे से सीधे किसानों का जीवन जुड़ा है और जो सिख समुदाय का बड़ा हिस्सा है उसके पीछे वो खड़े ना हों।