अमेरिका चुनाव के बाद अमेरिका को अपना 46वां राष्ट्रपति जो बाइडेन के रूप में मिल गया है। हालांकि उनकी ताजपोशी से पहले लंबा नाटक देखने को मिल रहा है, विरोध प्रदर्शन, दोबारा वोटों की गिनती, मुकदमेबाजी। बाइडेन को अमेरिकी इतिहास में किसी भी राष्ट्रपति उम्मीदवार से ज्यादा वोट मिले हैं। लेकिन एक सच ये भी है कि ये पुरस्कार एक विष के प्याले की तरह आया है जो उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी से विरासत में मिला। अगले साल 20 जनवरी को जब वो अपना पद संभालेंगे तो उन्हें इसकी कड़वाहट भी झेलनी पड़ेगी।
दरअसल बाइडेन अब जिस अमेरिका का नेतृत्व करने वाले हैं, वो विभाजित और ध्रुवीकरण का शिकार हो चुका है। नफरत वहां पर चरम पर है और लोगों का भरोसा एक दूसरे से खत्म होता जा रहा है। जरनल साइंस में मशहूर वहां की 11 यूनिवर्सिटीज के सोशल साइंटिस्ट्स ने ये लिखा है कि वहां लोग एक दूसरे के प्रति नफरत से भरे हुए हैं। उनमें ऐसा जहर भरा हुआ है जो समाज को गहराई तक नुकसान पहुंचा रहा है।
ये घृणा सोशल मीडिया के चलते और बढ़ रही है जिसमें एक समुदाय दूसरे पर जहर उगलता है। नेता अपने प्रतिद्वंद्वी को शैतान बताने के लिए विवादास्पद मुद्दे उछालते हैं और ऐसी आइडेंटिटी पॉलिटिक्स अपनी जड़ें जमा रही है जिसमें एक तरफ अपनी श्रेष्ठता के दंभ से भरे व्हाइट लोग हैं, तो दूसरी प्रवासी, अफ्रीकी अमेरिकी और दूसरे एथनिक और सेक्सुअल माइनॉरिटी के लोग।
डिवाइडेड स्टेट ऑफ अमेरिका बन गया है
अमेरिका का ‘रेड, व्हाइट एंड ब्ल्यू’ का मिथक टूट गया है और आप इसे यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका की बजाय ‘डिवाइडेड’ स्टेट्स ऑफ अमेरिका कह सकते हैं जिसमें लाल और नीला अलग-अलग दिशाओं में छिटक गए हैं। बीच का सफेद रंग अपनी जगह पर तो है लेकिन उसमें काफी गुस्सा भरा हुआ है।
अमेरिका चुनाव में अमेरिका आधुनिक और परंपरावादी लोगों के बीच में बंट गया है। एक वो लोग जो देश और जाति के पक्षपात से रहित हैं, दूसरे जो लकीर के फकीर बने हुए हैं। एक कहता है, मेक अमेरिका ग्रेट अगेन, तो दूसरा कहता है, मेक अमेरिका व्हाइट अगेन। अमेरिकी समाज शहरी और ग्रामीण, अमीर और गरीब, शिक्षित और कम शिक्षित लोगों के बीच विभाजित है। कुछ लोग इतिहास से प्रेरित होकर पूरी दुनिया के लोगों को अपना बनाना चाहते हैं, कुछ ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा लगा रहे हैं।
भारत में भी ऐसा ही कुछ दिखता है
अमेरिका चुनाव के घटनाक्रम की गूंज भारत में भी सुनी जा सकती है। इसके बावजूद कि यहां की राजनीति और चुनावी प्रणाली अमेरिका से बहुत अलग है। हमारा अपना देश भी विभाजित और ध्रुवीकरण का शिकार है ठीक अमेरिका की तरह। यहां भी हमें हार-जीत की ऐसी ही राजनीति देखने को मिलती है देश की आत्मा की तड़प और उसकी छटपटाहट सुनाई देती है। अमेरिका के संविधान में लिबरल कॉन्सटिट्यूशनलिज्म कायम है लेकिन अमेरिकी आत्मा से उसकी पकड़ पूरी तरह से ढीली हो रही है। हमारे देश में भी सत्तापक्ष संविधान के ‘सिविल नेशनलिज्म’ यानी नागरिक राष्ट्रवाद को ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ की तरफ खींचे ले जा रहा है। ये हिंदुत्व आंदोलन का जातिगत-धार्मिक राष्ट्रवाद है।
दोनों देशों में फैली है जहर वाली राजनीति
अमेरिका की राजनीति में नस्ल और पहचान उतनी ही प्रबल हैं, जैसे भारत में धर्म और जाति। ये बहुलतावाद और उदारवादी लोकतंत्र की नींव को कमजोर कर रही हैं। दोनों ही देशों में सोशल मीडिया हमारी नफरत को खाद पानी देता है। दोनों देशों की राजधानियों में बैठा शीर्ष नेतृत्व अपनी छाती ठोंकता है और तैश में आकर निराले फैसले करता है। भारत में ये नोटबंदी, बेरोजगारी और कोविड के बिगाड़ रूप में दिखाई दिया तो अमेरिका में तालिबान के आगे घुटने टेकने, डब्ल्यूएचओ से संबंध तोड़ने और कोविड की बद इंतजामी के रूप में।
दुनिया भर के देश भारत और अमेरिका को नैतिकता की मिसाल मानते हैं और हमारे पास महात्मा गांधी हैं और आजादी के आंदोलन का लंबा इतिहास। अमेरिका को आजादी और अवसरों की भूमि माना जाता है। लोकतंत्र और मानवाधिकारों का आदर्श। दोनों देशों का कद छोटा हुआ है और जहरीली राजनीति ने दोनों देशों की विश्वसनीयता को कमजोर किया है।