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ब्लैक डेथ : एक ऐसी महामारी, जिसने करोड़ों को सुला दी मौत की नींद !

क्या बूढ़े क्या जवान बहुतो ने तो दिन का सूरज देखा लेकिन नहीं देख सका रात का चाँद उससे पहले ही अलविदा कर गया। ब्लैक डेथ इतिहास का सबसे भयावह त्रासदी था ।
Information Anupam Kumari 13 April 2020
ब्लैक डेथ एक ऐसी महामारी, जिसने करोड़ों को सुला दी मौत की नींद !

कोरोना वायरस (Corona virus) के संक्रमण से होने वाली बीमारी COVID-19 का आतंक आज दुनिया झेल रही है। एक लाख से भी अधिक लोगों को यह मौत की नींद सुला चुका है। टकटकी लगाये दुनिया की निगाहें दुनियाभर में चल रहे रिसर्च पर टिकी हैं। मगर ऐसा नहीं है कि, ऐसी जानलेवा महामारी दुनिया में पहली बार आई है। ब्लैक डेथ (Black Death) नामक एक महामारी भी इस दुनिया में हुई थी । जिसको प्लेग (Plague) भी कहते हैं। इसकी शुरुआत भी 680 वर्ष पहले चीन से ही हुई थी। ब्लैक डेथ एक ऐसी महामारी थी , जिसने करोड़ों को सुला दी मौत की नींद ।

इस काली मौत ( Black Death ) का साया दुनिया पे जब जब पड़ा लाखों लोग इसके चपेट में आकर अपनी जान गवा बैठे। क्या बूढ़े क्या जवान बहुतो ने तो दिन का सूरज देखा लेकिन नहीं देख सका रात का चाँद उससे पहले ही अलविदा कर गया। ब्लैक डेथ (Black Death) इतिहास का सबसे भयावह त्रासदी था ।

मौत की नींद सो गई आधी आबादी

यूरोप की आधी आबादी को सुला दी थी इसने मौत की नींद। तभी तो नाम दे दिया गया ब्लैक डेथ । यूरोप तक ही नहीं रूकी ये महामारी। अफ्रीका भी पहुंच गई। फिर एशिया भी। शुक्र मना लें हम कि नहीं देखा हमने वो मौत का मंजर। वैसे, आज तो देख ही रहे हैं। कोरोना के रूप में। फ्लैशबैक खुद को दोहरा रहा है। बस दौर अलग है। लोग अलग हैं। महामारी का नाम अलग है। बड़ा आधुनिक है आज का यूरोप। वैसे, हमेशा ऐसा नहीं था। 13वीं शताब्दी में चलिए। अफ्रीका से कुछ खास अच्छी नहीं थी यूरोप की हालत। खेती ही सबकुछ थी। न शिक्षा का नाम लेने वाले ज्यादा थे, न स्वास्थ्य को पूछने वाले। जिंदगी बस कट रही थी। चर्च के भरोसे। प्रेयर के भरोसे। अंधविश्वासों के भरोसे। वर्ष 1315 में अकाल पड़ा। एक-दूसरे प्यासे यूरोप में सब हो गये।

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लाश से भरे जहाज

करीब 50 साल बाद चीजें कुछ हद तक पटरी पर लौटीं। अब अगली त्रासदी थी इंतजार में। साल था 1347 का। अक्टूबर का महीना था। बंदरगाह पर एक के बाद एक ढेरों जहाज जमा हो गये। बड़ी देर हो गई। कोई उतरा नहीं जहाज से। साहस जुटाकर किसी ने देखा तो पैरों तले जमीन ही खिसक गई। बस लाशें ही लाशें थीं। कुछ जिंदगियां अब भी सिसकी ले रही थीं। जहाज के कप्तान जैसे-तैसे ले आये थे इन्हें वापस। मुर्दों को दफनाने के बाद फिर चीख-पुकार मची। बीमार पड़ने लगे लोग। वे भी जो जहाज पर गये ही नहीं थे। सांसें टूटने लगीं इनकी। प्लेग फैल चुका था।

फैलता गया संक्रमण

वही प्लेग जिसने 1340 में चीन में तबाही मचाई। फिर 1346 में वापसी की। यूरोप के जहाज चीन पहुंच रहे थे। उस वक्त यहां महामारी भीषण रूप अख्तियार कर चुकी थी। सामान जहाज में लादे गये ते चूहे भी साथ हो लिये। जाने में समय तो लगता ही था। तब तक जहाज में ही नाविक शिकार बनने लगे। यही प्लेग 1347 में सिसली बंदरगाह पहुंच गया। फैल गई महामारी। संक्रमण बढ़ता गया। लोग दम तोड़ते गये। ब्लैक डेथ के चपेट में लगभग पूरा यूरोप इंग्लैंड, इटली, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, हंगरी, स्विट्‌जरलैंड, स्कैन्डिनेविया और आस्ट्रिया तक आ गये चपेट में। इतना होने पर भी पादरियों के कहने पर लोग प्रार्थना में ही जुट रहे। गंदगी भी महामारी को फैलाती चली गई। लाशें बिछ गईं। इंसानों की नहीं, जानवरों की भी।

दो तरह के प्लेग

यूरोप के साथ अफ्रीका भी चपेट में आ गया। एशिया भी नहीं बचा। बताते हैं कि यूरोप की आधी आबादी ही निपट गई प्लेग से। तीन साल में करोड़ों का वजूद मिटा गई ये महामारी। फिर फैला अंधविश्वास कि भगवान नाराज हैं। अवधारणा ये और मजबूत हुई रोमन कैथोलिक धर्म की उस समय की परगेट्री शिक्षा से। द डिवाइन काॅमेडी (The Divine Comedy) नामक एक किताब लिखी गई। दान्ते (Dante) ने लिखा था। नरक के बारे में खूब बढ़ा-चढ़ाकर लिखा। अंधविश्वास और बढ़ा। सबकुछ ये बर्बाद करता चला गया। दो तरह के प्लैग फैले। न्यूमोनिक (Pneumonic) टाइप में तेज बुखार के साथ खून की उलटी वाले लक्षण थे। तीन दिनों में मरीज दम तोड़ देते थे। ब्यूबोनिक (Bubonic) टाइप में जांघ के जोड़ व इसके साइड में गिलटी हो जाती थी। पस जमा हो जाता था इसमें। मरीज की जान पांच दिनों में जिस्म से बाहर। इससे ज्यादा लोग मरे।

तंत्र साधना ही करते रहे गये लोग

जब लोगों को समझ में नहीं आया तो तरह तरह के अटकले लगाना शुरू करते है और यही ब्लैक डेथ के साथ भी हुआ। उस समय बीमारी के सटीक कारणों का पता नहीं चल पाया तो लोगों ने उसे भगवान का कहर बताया। अंधविश्वास के चलते यहूदियों के अलावा समाज के अन्य लोगों को भी इसका शिकार होना पड़ा। तंत्र साधना की। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया। जानें जाती गईं। हर सदी में महामारी आती-जाती रही और लोगों को निगलती रही। वर्ष 1860 में चीन और भारत में इसने खूब तबाही मचाई। करीब सवा करोड़ की जान चली गई। प्लेग फैलाने वाले बैक्टीरिया की पहचान फ्रांस के वैज्ञानिक आलेक्सांद्रे यरसन (Alexandre Yarsan) ने 1894 में की। नाम पड़ गया इसका यरसिनया पेस्टिस (Yersinia Pestis) । फ्रांस के ही लुई सीमाॅन ने 1898 में एक और जानकारी दी। बताया कि चूहे और गिलहरी में मौजूद पिस्सू से प्लेग फैलता है। वैक्सीन बन गई। फिर भी आज भी WHO के अनुसार प्लेग सिर उठाता ही रहता है। वजह वही है- गंदगी, साफ-सफाई का ध्यान न रखना। खतरा अब भी बरकरार है।

Anupam Kumari

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मेरी कलम ही मेरी पहचान