2014 में दब मोदी सरकार सत्ता में आ रही थी, तो उस वक्त उसका एक नारा था कि हम देश से भ्रष्टाचार को मिटायेंगे । देश के प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि न खाउंगा न खाने दूंगा. साथ ही काला धन और भ्रष्टाचारियों को जेल भेजने से जुड़े कई वादें किए थे। खैर वैसे तो कहते हैं कि वादें और कानून होते ही टूटने के लिए हैं, तो शायद मोदी जी भी ये वादा कर के भूल गए।
लंबे वक्त पहले संसद में आरटीआई कानून में संशोधन किया गया और इस कानून को एक ऐसा जीव बना दिया जिसके पास जुबान है लेकिन बोल नहीं सकता, हाथ है लेकिन उंगलियां कटी हुई है। हालांकि इस पर पहले ही आवाज उठनी चाहिए थी, लेकिन सरकार बहुत ही बेहतरीन तरीके से इस कानून से लोगों का घ्यान भटकाने में सफल रही, तीन तलाक, 370, कश्मीर ये मुद्दे जरूरी थे पर एक वक्त तक के लिए ही। लेकिन आरटीआई की जरूरत पड़ती रही है और आगे भी पड़ती रहेगी। इसे कमजोर करने का मतलब है कि आप जनता से पार्दर्शिता कम कर रहे हैं।
लोकतंत्र में जनता को ये अधिकार है कि वो सरकार से सवाल करे, इससे देश का लोकतंत्र और मजबूत होता है। लेकिन आज ऐसा होता हुआ नजर नहीं आ रहा ह, बल्कि ज्यादातर सवाल तो हम विपक्ष से करते दिखते हैं। जनता को सरकार से पूछना चाहिए कि टैक्स के जरिए जो पैसे उनसे वसूले जा रहे हैं, उसे कहां पर खर्च किया जा रहा है? जनता का हक है कि वो शासन और प्रशासन के सारे काम के बारे में जानकारी हासिल कर सके और उसको जवाबदेह बनाये। सरकार की जवाबदेही से ही कोई लोकतंत्र मजबूत बनता है।
क्या था आरटीआई?
भारत में सरकार के काम-काज पर नजर रखने के लिए किसी तरह का पहले कोई कानून नहीं हुआ करता था। जनता के पास कभी इस बात की जानकारी नहीं आ पाती थी कि उसके प्रतिनिधि को कितने पैसे मिले और कहां कहां पर वो सभी पैसा खर्च किया गया। लेकिन एक लंबे संघर्ष के बाद सूचना का अधिकार यानी की आर.टी.आई कानून साल 2005 में बना था। देश भर के बुद्धिजीवी लोग इस आंदोलन में जुड़े थे और उस वक्त नारा दिया गया थी – हमारा पैसा, हमारा अधिकार।
तत्कालीन सरकार को विवश किया गया कि वो आरटीआई कानून लाये। ये आंदोलन जोरदार तरीके से चला था जिसके कारण कुछ राज्य सरकारें पहले ही आरटीआई कानून ले आईं, जैसा कि 1997 में गोवा और तामिलनाडु, 2000 में महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, 2001 दिल्ली में, 2003 जम्मू और कश्मीर में आरटीआई कानून लाया गया था।
भारी दबाव के बाद वाजपेयी सरकार की तरफ से साल 2002 में ‘सूचना पाने की आजादी’ (फ्रीडम ऑफ इन्फारमेशन) बिल लाया गया था। लेकिन ये बिल लोगों को मंजूर नहीं था। जिसके बाद साल 2005 में यूपीए सरकार की तरफ से सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून लाया गया। इसमें कहा गया था कि 30 दिन के अन्दर सूचना देनी होगी नहीं तो आप पर राज्य सूचना आयुक्त, केन्द्रीय सूचना आयुक्त के पास अपील करने का हक गै और दोषी अधिकारियों पर फाइन लगाने का भी प्रावधान रखा गया था।
क्या हो गया है आरटीआई
जनता के दबाव में और आंदोलनों के सामने झुककर सरकार आरटीआई कानून तो ले आई। लेकिन उसकी कभी भी मंशा ये नहीं रही कि लोगों को सूचना दी जाये जैसा कि भूतपूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी ने अपनी रिटायरमेन्ट से एक दिन पहले 5 जुलाई, 2012 को कहा था – सूचना का अधिकार बड़े और ताकतवर लोगों को पसंद नहीं आ रहा है।
यही कारण है कि आरटीआई कानून को लाने के बाद कभी भी इसको सशक्त करने के बारे में नहीं सोचा गया था। एक आरटीआई कार्यकर्ता ने फाइल नोटिंग की सूचना लेनी चाही तो उसे सूचना नहीं दी गई। अपील में जाने के बाद पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने कहा कि ये सूचना दी जा सकती है। जिसके बाद घबराई हुई सरकार ने सोचा कि इसे कमजोर किया जाए लेकिन भारी विरोध के कारण इसको बदला नहीं गया। लेकिन मोदी सरकार की तरफ से अपने पहले कार्यकाल में आरटीआई में संशोधन करने की कोशिश तो की गई लेकिन वो असफल रहे, लेकिन दूसरे कार्यकाल के पहले ही संसद सत्र में इस कानून में संशोधन कर एक अगस्त 2019 को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करवा लिए गए।
मोदी सरकार कहती है कि आरटीआई संवैधानिक नहीं है, इसलिए इसके आयुक्त का वेतन चुनाव आयुक्त के बराबर नहीं रह सकता और न कार्यकाल तय किया जा सकता है, इसलिए आयुक्त का कार्यकाल और वेतन सरकार तय करेगी।
सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलू ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर कहा है कि वोट देने का अधिकार और जानने का अधिकार संवैधानिक अधिकार है, इसलिए मुख्य सूचना आयोग और मुख्य चुनाव आयोग को बराबर का दर्जा दिया है। ये बात लंबी बहस और सलाह के बाद आरटीआई एक्ट, 2005 में तय की गई है। लेकिन केंद्र सरकार ने ये मान लिया है कि मूख्य सूचना आयुक्त का कद मुख्य चुनाव आयुक्त के मुकाबले में छोटा है।
आरटीआई एक्ट ये कहता है कि ये संवैधानिक अधिकार है लेकिन संशोधन बिल 2018 में लिखा है कि ऐसा नहीं है, अगर संविधान के अनुच्छेद 324(1) के तहत मुख्य चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है तो अनुच्छेद 19(1)(अ) के तहत संवैधानिक अधिकारों को लागू करवाने वाला मुख्य सूचना आयोग कैसे असंवैधानिक संस्था हो जाता है?
आरटीआई में संशोधन से प्रभाव
एक्ट में बदलाव के बाद मुख्य सूचना आयुक्त से लेकर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर उन्हें हटाने का अधिकार भी अब केंद्र सरकार के पास चला गया है। पहले मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त को हटाने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति के पास हुआ करता था। राष्ट्रपति भी उन्हें तभी हटा सकते थे, जब सुप्रीम कोर्ट की जांच में कोई आयुक्त दोषी पाया जाता हो। राज्यों के मामले में मुख्य सूचना आयुक्त के साथ दूसरे आयुक्तों को हटाने का अधिकार राज्यपाल के पास था अब वो राज्य सरकार के हाथों में चला गया है।
सूचना आयुक्तों को संवैधानिक संस्था के बराबर दर्जा इसलिए दिया गया था ताकि वो स्वतंत्रता और स्वायत्ता के साथ काम करें। सूचना आयुक्तों के पास ये अधिकार था कि सबसे बड़े पदों पर बैठे लोगों को भी आदेश दे सकें कि वो एक्ट के नियमों का पालन करें, लेकिन इस संशोधन के बाद अब उनका ये अधिकार वापिस ले लिया गया है।
पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने इस कदम को पीछे ले जाने वाला बताया है जिससे कि सीआईसी और एसआईसी की स्वतंत्रता के साथ समझौता किया गया है। सरकार से मांगी गई सूचनाएं लोगों को नहीं दी जाती है इसके लिए अपील करते हैं, जो कि सूचना आयुक्त के निर्देश पर ही विभाग देता है। अब सूचना आयुक्त की तनख्वाह और समय सीमा सरकार तय करेगी। पहले सूचना आयुक्त का कार्यकाल 5 साल या 65 साल की उम्र तक का हुआ करता था और वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त के बराबर होता था लेकिन अब कार्यकाल और वेतन सरकार की तरफ से तय किया जाएगा।
भारत में करीब 60 लाख लोग हर साल आरटीआई का उपयोग करते हैं जिसमें गरीब तबके के लोग भी शामिल हैं जो अपने राशन, वृद्धा, विकलांग और विधवा पेंशन के लिए अर्जी लगाकर जानकारी लेते हैं। राजस्थान में 10 लाख लोगों की पेंशन बंद कर दी गई थी, उन लोगों ने आरटीआई से जानकारी मांगी तो उन्हें मृत बता दिया गया था। इस जानकारी को हासिल कर लोग पेंशन पाने के हकदार बने।
क्या कहा था सरकार ने और क्या किया?
मोदी सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सत्ता में आई थी और स्लोगन दिया था ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’। भ्रष्टाचार से लड़ने का सबसे कारगर हथियार आरटीआई में संशोधन कर उसे ही कमजोर बना दिया गया है। आरटीआई सरकार के काम काज का लेखा जोखा होता है जो पैसा सरकार दे रही है वो कहां पर इस्तेमाल हो रहा है कि जनता आरटीआई के द्वारा ही जान पाती थी। आरटीआई ऐसा हथियार था जो केवल जानने का ही नहीं सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करने का भी अधिकार देता है।
कहने को तो प्रधानमंत्री को आरटीआई को और मजबूत करना चाहिए और व्हीसल ब्लोअर प्रोटेक्शन कानून जो कि साल 2004 में पास हो गया लेकिन लागू नहीं हुआ है उसको लागू करना चाहिए था। लेकिन वो इसे और कमजोर करने की प्रक्रिया में लगे हैं। अभी तक सूचना मांगने और उसका खुलासा करने के कारण 80 से अधिक आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। कई राज्यों में मुख्य सूचना आयुक्त तक नहीं हैं यहां तक केन्द्रीय आयुक्त के 11 में से 4 पद खाली हैं, जुलाई 2018 तक आंध्र में कोई आयुक्त ही नहीं था जिसके कारण हर जगह फाइलें पड़ी हुई हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग की सालाना रिपोर्ट 2017-2018 के अनुसार साल 2014-15, 8.45 लाख, 2015-16 में 11.65 लाख और 2016-17 में 11.29 लाख आरटीआई के आवेदन का उत्तर नहीं दिया गया।
पीएम को आरटीआई में संशोधन की जगह पर शिकायत निवारण का ढांचा लाना चाहिए ताकि लोग अपनी समस्या का सही तरीके से सही समय पर हल निकाल सकें। साल 2014 के चुनाव में बहुत जोर शोर से लोकपाल का मुद्दा उठाया था लेकिन लोकायुक्त की नियुक्ति भी नही हो सकी। शैलेश गांधी ने कहा कि पहला खतरा ताकतवर लोगों से हैं दूसरा खतरा न्यायपालिका से है जहां कई सालों तक फैसला नहीं हो पाता है।
कई बार देखा गया है कि सूचना आयुक्त और केन्द्रीय मुख्य सूचना आयुक्त के कहने के बाद भी सूचनाएं मुहैया नहीं कराई जाती हैं जैसे कि 16 अगस्त 2010 को आरटीआई के द्वारा रिजर्व बैंक से 100 बड़े डिफॉल्टर उद्योगपतियों का नाम, पता, कम्पनी, कर्ज की राशि, ब्याज के बारे में जानकारी मांगी गई थी। इस जानकारी को रिजर्व बैंक ने ये कहते हुए नहीं दिया कि यह लोगों की गोपनीयता का मामला है। इसके खिलाफ आयोग के पास अपील की गई जिसमें सूचना आयुक्त ने रिजर्व बैंक को 15 नवम्बर, 2011 को आदेश दिया कि ये जानकारी मुहैया कराई जाये। रिजर्व बैंक ने जानकारी नहीं दी और हाईकोर्ट में अपील दायर कर दी जिस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री की जानकारी आरटीआई के द्वारा मांगी गई जिसको दिल्ली विश्वविद्यालय ने गोपनीयता के आधार पर देने से मना कर दिया। अपील में जाने पर सूचना आयुक्त ने आदेश दिया कि डिग्री का निरीक्षण करने दिया जाये लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय इस मामले को लेकर हाईकोर्ट पहुंच गया। इस तरह के और भी मामले हैं जिसमें आयुक्त के कहने के बाद जानकारी नहीं दी गई और मामले को कोर्ट के पाले में डाल दिया गया।
हमारे प्रधानसेवक कहते हैं कि वे जवाबदेही और पारदर्शिता लाने वाली सरकार देंगे। लेकिन मोदी जी अपने मामले में ही आंख पर पट्टी बांधे बैठे रहे जबकि उन्हें आगे आकर कहना था कि कानून का सम्मान करो और जानकारी दो। जो भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर सत्ता में आए थे, उन्होंने भ्रष्टाचार से लड़ने की सबसे सशक्त हथियार आरटीआई को ही कमजोर बना दिया है।
यहां तक कि अब कई विभागों के दफ्तरों में जाने और ब्रिफिंग के समय पर सवाल पूछने पर पाबंदी लगा दी गई है। पहले ही बेरोजगारी के आंकड़े देने से रोक लगा दी गई है, जो लोगों के पास कानूनी हथियार आरटीआई था वो भी खत्म है। सूचना प्राप्त किए बिना कोई भी नागरिक अपना विचार व्यक्त नहीं कर सकता है या सरकार की गलत नीतियों की आलोचना नहीं कर सकता है, आलोचना को रोकने के लिए ही लोगों को जानकारी से वंचित किया जा रहा है। इस पर जनता को सामने आना चाहिए और आवाज उठानी चाहिए लेकिन ऐसा लगता है कि जनता या तो सो गई है या मायूस हो गई है।