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न सोना, न चांदी, न तांबा, न एल्युमीनियम, यहां चलते थे पत्थर के सिक्के

खरीद-बिक्री के लिए सिक्के सदियों से इस्तेमाल में लाये जा रहे हैं। कभी महंगे रत्न भी इसके लिए प्रयोग में लाये जाते थे। अलग-अलग साम्राज्यों व सभ्यताओं में अलग-अलग तरह के सिक्के ढाले गये। कभी सोना-चांदी तो कभी तांबे और एल्युमीनियम के सिक्के चले। लेकिन एक जगह दुनिया में ऐसी है, जहां पत्थर के सिक्के चलते थे।

यह द्वीप प्रशांत महासागर के माइक्रोनेशिया इलाके में स्थित है। नाम है इसका याप द्वीप। यह द्वीप बहुत छोटा है। आबादी इसकी बहुत कम सिर्फ 11 हजार की है। 11वीं सदी के एक राजा ने भी इसका जिक्र किया है। मशहूर यूरोपीय यात्री मार्को पोलो ने भी 13वीं सदी में अपनी किताब में इसका वर्णन किया था।

पत्थरों में छेद

दिन भर में केवल एक ही फ्लाइट याप द्वीप में उतरती है। हवाई अड्डे से बाहर यहां छोटे-बड़े ढेरों पत्थर नजर आते हैं। इनमें एक छेद भी देखने को मिलता है। छेद इसलिए है, ताकि इन्हें यहां से वहां ले जाया जा सके। इसी द्वीप पर चट्टानें दरअसल हैं ही नहीं। दलदली मिट्टी है यहां की। फिर भी सदियों से यहां पत्थर के ही सिक्के चल रहे हैं। किसी को नहीं मालूम कि आखिर यह शुरू कब हुआ।

पलाऊ द्वीप से लाते थे पत्थर

स्थानीय लोग इसके बारे में बताते हैं। उनके मुताबिक यहां से लगभग 400 किलोमीटर की दूरी पर पलाऊ द्वीप स्थित है। यहां के लोग नाव से वहां जाते थे। वहां पत्थर तोड़कर इन्हें तराशते थे। इन्हें लाद कर यहां लाते थे। इन्हें राई के नाम से जाना जाता था।

कहा जाता हे कि यही पत्थर करेंसी के तौर पर सदियों से यहां इस्तेमाल में लाये जा रहे हैं। शुरुआत में बताया जाता है कि ये लोग जैसे-तरीके पत्थरों को काट लेते थे। इन्हें लादकर यहां ले आते थे।

स्पेन के कब्जे के बावजूद चलता रहा कारोबार

फिर जरूरत हुई हथियार बनाने में इनके इस्तेमाल की। सुघड़ तरीके से इन्हें ढाला जाने लगा। स्पेन में 19वीं शताब्दी में याप को अपने कब्जे में ले लिया था। हालांकि, उस दौरान भी पत्थरों का कारोबार जारी रहा था। पलाऊ तक यहां के लोग जाते थे। ये नाविक पत्थर लाद कर लाते थे। यहां वे याप के बड़े सरदारों को इन पत्थरों को दे दिया करते थे।

इन पत्थरों को सरदार फिर अपना नाम देते थे। या फिर अपने परिवार के किसी सदस्य का नाम भी वे दे देते थे। इसके बाद उन्हीं को दे देते थे, जो इन्हें लेकर आते थे। ये सरदार पांच में तीन पत्थर ही लौटाते थे। बचे दो पत्थर ये सरदार अपने पास ही रख लेते थे।

ऐसे तय होती थी पत्थरों की कीमत

पत्थरों की कीमत तय करने का भी तरीका था। सीपियों की संख्या के हिसाब से यह तय होती थी। दरअसल सीपी ही करेंसी से पहले इस्तेमाल में लाये जा रहे थे। पचास सीपी एक पत्थर के बदले मिलते थे। वर्तमान में याप में करेंसी के रूप में अमेरिकी डाॅलर इस्तेमाल में लाया जा रहा है। फिर भी इन पत्थरों का महत्व घटा नहीं है।

आज भी इन पत्थरों का याप समाज में उतना ही महत्व है। हर पत्थर यहां का कीमती है। हर पत्थर का यहां इतिहास है। हर पत्थर से कोई-न-कोई किस्सा जुड़ा हुआ है। हर पत्थर के पीछे कोई-न-कोई कहानी छिपी है। किसी भी परिवार के पास यदि यह करेंसी रहे, तो सम्मान उसका बहुत होता है।

आज यूं इस्तेमाल में रहे पत्थर

पत्थर की ये करेंसी आज भी मौजूद हैं। वैसे, रोजाना लेन-देन में ये इस्तेमाल में नहीं लाये जा रहे। कभी-कभी इनका प्रयोग होता है। माफीनामे में या शादी-संबंध को मजबूत करने के लिए इनका इस्तेमाल होता है। आकार की बात करें तो 7 सेंटीमीटर से 3.6 मीटर तक इन सिक्कों का आकार होता है। इनके दाम तय करने का भी तरीका है। किस काम में ये इस्तेमाल में आते हैं, इनके अनुसार दरअसल यह तय होता है।

किसको ये सिक्के दिये जाते हैं, इसके आधार पर भी कीमत इनकी तय होती है। आने वाली नस्लों को सरदार सिक्कों के बारे में बताते हैं। पत्थर के सिक्के का इतिहास उन्हें बताते हैं। आने वाली पीढ़ी को इतिहास इन पत्थरों का रटाया जाता रहा है। ऐसा 200 वर्षों से होता आ रहा है। म्यूजियम में भी आज ये सिक्के रखे गये हैं। इनके बड़े होने की वजह से इन्हें चुराये जाने का डर ज्यादा नहीं होता।