भारत को आजादी यूं ही नहीं मिल गई। इसके लिए न जाने कितने ही क्रांतिकारियों को अपनी शहादत देनी पड़ी। न जाने कितनी ही नारियों के सुहाग के सिंदूर उजड़े, कितनी ही माताओं की गोदें सूनी हुईं और कितनी ही बहनों के भाई कुरबान हुए। तब जाकर भारत ने आजादी का सवेरा देखा। ऐसे ही वासुदेव बलवंत फड़के नाम के भी एक क्रांतिकारी अपने देश में हुए, जिनकी वीरता और शहादत की कहानी जानकर आपकी भी भुजाएं फड़कने लगेंगी। यहां हम इसी क्रांतिकारी से आपका परिचय करवा रहे हैं।
4 नवंबर, 1845 को भारत के इस महान क्रांतिकारी का जन्म हुआ था। अंग्रेजों के शासनकाल में जो किसानों की दुर्दशा हो रही थी, इसने वासुदेव बलवंत फड़के को व्यथित कर दिया था। वे बचपन से ही मानने लगे थे कि बिना स्वराज के किसानों की दशा नहीं सुधारी जा सकती है। फड़के को स्वतंत्रता संग्राम के आदी क्रांतिकारी के तौर पर भी जाना जाता है। इन्होंने अंग्रेजों से लड़ने और उन्हें भगाने के लिए सशस्त्र मार्ग अपनाया था। जो लोग अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करना चाह रहे थे, उन्हें जगाने का काम फड़ने ने किया। इन्होंने ही कोली, धांगड़ और भील जातियों को इकट्ठा किया और एक क्रांतिकारी संगठन रामोशी के नाम से बना डाला। आजादी की इस लड़ाई के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने धनी अंग्रेज साहुकारों को लूट भी लिया।
कुछ दिनों के लिए जब फडके ने पुणे नगर को अपने कब्जे में ले लिया तो इसके बाद उनकी ख्याति तेजी से फैलने लगी। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते-लड़ते 20 जुलाई, 1879 को उन्हें बीजापुर में पकड़ लिया गया। इन पर मुकदमा चलाया गया और काला पानी की कठिनतम सजा दे दी गई। यहां इन पर इतने अत्याचार किये गये कि धीरे-धीरे इनका शरीर दुर्बल होता चला गया और आखिरकार मातृभूमि के लिए इस क्रांतिकारी ने अपना बलिदान दे दिया।
फड़के, जो मूल रूप से महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के सिरधोन गांव के रहने वाले थे, उनके प्रतिष्ठित परिवार की आर्थिक स्थिति धीरे-धीरे बिगड़ती चली गई और दूसरी कक्षा के बाद ही उनके पिता ने उनकी पढ़ाई छुड़वा दी। उन्होंने सोचा कि यदि वासुदेव किसी दुकान पर 10 रुपये महीने की नौकरी पकड़ लेते हैं तो इससे घर चलाने में आसानी हो जायेगी, जबकि वासुदेव की इच्छा तो पढ़ाई करने की थी। यही वजह है कि वे पिता की बात मान नहीं रहे थे और पढ़ने की जिद लिये खर्च नहीं मिलने पर मुंबई चले गये। वासुदेव बलवंत फड़के ने यहां 20 रुपये महीने पर जीआईपी में नौकरी की। नौकरी इन्होंने बदलती रही और ग्रांट मेडिकल एवं फिनेन केमिस्ट के अलावा कुछ और जगहों पर भी नौकरी की। नौकरी के दौरान ही इन्होंने विवाह तो किया, मगर जल्द ही इनकी पत्नी चल बसीं, जिसके बाद इन्होंने दूसरा विवाह भी किया। उन्हें दूसरी पत्नी बेहद योग्य मिलीं।
इसी बीच वासुदेव की मां किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हो गईं। वासुदेव ने छुट्टी मांगी, मगर उन्हें मिली नहीं। मां का निधन हो गया। उनका श्राद्ध भी हुआ, मगर किसी भी समय वासुदेव की छुट्टी मंजूर नहीं की गई, जिसकी वजह से अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वासुदेव बलवंत फड़के के मन में घिन्न पैदा हो गया। मां की मौत से उनके दिमाग पर गहरा असर हुआ और उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का संकल्प ले लिया। फड़के ने महज 12 वर्ष की उम्र में 1857 का विद्रोह यानी कि भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम देखा था। उन्होंने यह भी देखा था कि अंग्रेजों ने इसका प्रतिशोध किस तरह से लिया था। ये सबकुछ इनके दिलोदिमाग में पूरी तरह से छाया रहता था। उन्होंने देखा कि किस तरह से लोगों को पेड़ों पर लटका कर फांसी दी गई थी। कैसे उनके घर उजाड़ दिये गये थे और उन्हें कड़ी यातनाएं दी गई थीं।
वासुदेव ने अब अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की ठान ली थी। अपने संगठन के जरिये इन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम करना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र में धीरे-धीरे इनका फैलाव कई जिलों में फैल गया। इन पर तो अंग्रेजों की ओर से 50 हजार रुपये का इनाम तक रख दिया। अंग्रेज सरकार जिंदा या मुर्दा इन्हें पकड़ना चाह रही थी। बीमार होने की वजह से जब इन्होंने एक मंदिर में शरण ले रखी थी, उसी दौरान 20 जुलाई, 1879 को उन्हें पकड़कर मुकदमा चलाकर काला पानी भेज दिया गया। फड़के पर गोविंद रानाडे ने गहरा प्रभाव छोड़ा था। रानाडे ने जो अंग्रेजों द्वारा भारत को आर्थिक रूप से कमजोर करने और लूटने की बात की थी, इसका भी उन्होंने खूब प्रचार-प्रसार किया था।
ये वीर क्रांतिकारी 17 फरवरी, 1883 को शहीद हो गये, लेकिन इनकी शहादत ने अंग्रेजों के खिलाफ चल रही आजादी की लड़ाई की ज्वाला में घी डालने का काम किया। इसके बाद और बड़ी संख्या में क्रांतिकारी देश की आजादी की लड़ाई में शामिल हुए, जिनकी बदौलत अंततः हमारा देश परतंत्रता की जंजीरों से मुक्त हो गया।