मेवाड़ राज्य के बारे में आपने पढ़ा तो होगा ही। दरअसल इसकी स्थापना 568 ईस्वी में गुहिल ने की थी। ऐसा ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं। समय के साथ गुहिल वंश पहले गहलोत वंश और फिर सिसोदिया वंश में भी परिवर्तित हो गया। वैसे, मेवाड़ राज्य की स्थापना के बारे में माना जाता है कि बप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी में इसे स्थापित किया था। बप्पा रावल का मूल नाम काल भोज था। प्रजा के प्रति उनके मन में बड़ा प्रेम था। यही वजह थी कि मेवाड़ की पूरी प्रजा भी इन्हें प्यार से बप्पा के नाम से पुकारती थी।
जहां कुछ लोग मानते हैं कि मौर्य शासक मान मोरी को 734 ईस्वी में हराकर बप्पा रावल ने चित्तौड़ के किले पर विजय प्राप्त की थी। वहीं, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चित्तौड़ के शासकों को अरब आक्रमणकारियों ने पहले युद्ध में हराया था और इसके बाद बप्पा रावल ने उन्हें हराकर चित्तौड़ पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। साथ ही उन्होंने नागदा से हटाकर इसे अपनी राजधानी भी बना लिया था। उन्होंने जैसलमेर एवं जोधपुर के राजाओं की मदद से अफगानिस्तान की सीमा से अरबों को दूर भगा दिया था। उन्होंने लुटेरों पर नजर रखने के लिए एक चैकी बनाई थी जो कि उस वक्त गजनी के नाम से जानी जाती थी। इससे यह पता चलता है कि आधुनिक अफगानिस्तान तक मेवाड़ का साम्राज्य फैला हुआ था। इतिहासकारों का मानना है कि ये चैकी गजनी प्रदेश में रावल ने आक्रमणकारियों से सुरक्षा के लिए बनाई थी। बाद में इस जगह का नाम बदलकर बप्पा रावल के नाम पर ही रावलपिंडी कर दिया गया। कहा जाता है कि बाकी राजाओं के साथ मिलकर 16 वर्षों तक बप्पा रावल ने लुटेरों के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए उन्हें भारत की मुख्य भूमि से दूर रखा। एक समय ऐसा आया जब बप्पा रावल ने अरबों को ऐसा खदेड़ा कि उनका प्रभाव ही पूरी तरह से खत्म हो गया।
मेवाड़ का विस्तार
इतिहास बताता है कि सबसे पहले भारत पर अरब आक्रमण अल हज्जाज के भतीजे और दामाद मोहम्मद बिन कासिम द्वारा 712 ईस्वी में किया गया था। तेजी से मोहम्मद बिन कासिम आगे बढ़ता जा रहा था। उसके आगे कोई भी नहीं टिक पा रहा था। वह वर्तमान अफगानिस्तान एवं सिंध पर विजय प्राप्त कर चुका था। रेगिस्तान होते हुए वह मेवाड़ की ओर भी बढ़ा चला आ रहा था। कुछ ही वर्षों में उसने मौर्यों, चावड़ों, कच्छेल्लों और सैन्धवों को भी उसने पराजित कर दिया था। मोहम्मद बिन कासिम धन तो लूटता ही जा रहा था, लेकिन साथ में बड़े पैमाने पर उसके नरसंहार की वजह से रास्ते में पड़ने वाले गांव पूरी तरह से तबाह हो जाते थे। ऐसे में बप्पा रावल ने युद्ध की अगुवाई शुरू कर दी। उन्होंने विशाल सेना को जमा कर लिया। साथ ही जो राज्य हार चुके थे, उन्हें भी जीत का भरोसा दिला कर अपने पाले में मिला लिया। सबसे पहले उन्होंने मेवाड़ के नजदीक चित्तौड़ किले पर विजय हासिल की और इसके बाद 734 ईस्वी में यहां गहलोत वंश की भी स्थापना कर दी। उन्होंने अरबों को तो खदेड़ा ही, साथ में उन्होंने जो इलाके पर कब्जा किया था, उसे भी वापस हासिल करके मेवाड़ में मिला लिया।
यहां भी मिली विजय
बाद में बप्पा रावल ने सौराष्ट्र की मदद ली। बिन कासिम के साथ एक बड़ा युद्ध हुआ। इसमें उन्होंने उसे बुरी तरह से पटखनी दी। साथ ही सिंधु के पश्चिमी तट पर उन्होंने बिन कासिम को पीछे धकेल दिया। वर्तमान में यह बलूचिस्तान का इलाका है। बप्पा रावल इसके बाद गजनी यानी कि वर्तमान अफगानिस्तान की ओर बढ़ गए। वहां उन्होंने वहां के शासक सलीम पर भी विजय हासिल की। कर्नल टॉड के अनुसार अपनी जान बचाने के लिए सलीम ने अपनी बेटी की शादी बप्पा रावल से कर दी थी।
सिलसिला जारी रहा
गजनी पर जीत हासिल करने के बाद भी बप्पा का विजय रथ आगे बढ़ता रहा। उन्होंने कंधार के साथ खुरासान, इस्पाहन, तुरान और ईरानी साम्राज्य को भी जीत लिया था एवं अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया था। कहा जाता है कि सभी राज्यों के मुस्लिम शासकों ने बप्पा रावल से अपनी बेटियां ब्याह दी थीं। यह भी कहा जाता है कि 35 मुस्लिम राजकुमारियों से बप्पा रावल ने विवाह किया था। इतिहास बताता है कि करीब 20 वर्षों तक बप्पा रावल ने शासन किया और उसके बाद वैराग्य लेकर अपने बेटे को राज्य सौंप कर शिव की उपासना में लीन हो गए।
महाराणा संग्राम सिंह, उदय सिंह और महाराणा प्रताप जैसे श्रेष्ठ और वीर योद्धा इन्हीं के वंश में आगे पैदा हुए थे। बप्पा रावल ने जिस तरह से अरब हमलावरों को पीछे धकेला, उसकी वजह से कहा जाता है कि करीब 400 वर्षों तक मुस्लिम शासकों की भारत की ओर देखने की हिम्मत ही नहीं हुई। महमूद गजनवी बहुत बाद में फिर भारत पर आक्रमण कर पाया था।