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दिल्ली हिंसा पर सरकार दुखी नहीं है, क्योंकि वो यही चाहती थी !

राजधानी दिल्ली झुलस रही है। लेकिन हमारी सरकारों को दुखी होने की जरूरत नहीं है और न इसका दिखावा करने की। क्योंकि सरकारें यही तो चाहती थी। चाहे फिर वो दिल्ली की केजरीवाल सरकार हो या फिर ग्रेट मोदी सरकार। ये दोनों सरकारें ही ये चाहती थी, तभी तो 2 महीनों से ज्यादा बीतने के बाद भी और दिल्ली ही नहीं पूरे देश में विरोध होने के बाद भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उठने वाली आवाज को गंभीरता से नहीं लिया गया। सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। बल्कि आप तो खुलेआम कहते रहे कि दोबारा कोई विचार नहीं होगा और इस कानून से एक कदम भी पीछे नहीं हटेंगे।

क्यों शांत है केजरीवाल?

सुप्रीम कोर्ट ने भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं को सुनने से पहले शाहीन बाग का रास्ता खुलवाना सही समझा। केजरीवाल सरकार ने भी चुनाव जीतने के बाद इस मसले के हल के लिए कुछ ठोस करने के बारे में नहीं सोचा। चलो माना आपके हाथ में कुछ नहीं था लेकिन अपना स्टैंड तो साफ करते, दिल्ली वालों को भरोसा तो दिलाते। विधानसभा में कोई प्रस्ताव लाने की बात तो करते, लेकिन नहीं केजरीवाल भी तीसरी बार सीएम बनने की खुशी से बाहर निकलते नहीं दिख रहे हैं। हां दिल्ली के बेटे केजरीवाल ने ट्वीट कर और मीटिंग कर के शांति बनाने की अपील जरूर की, लेकिन जनता के बीच जा कर उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की।

कैसे सब कुछ अमित शाह और भाजपा के इर्द गिर्द घूमता है

मोदी और शाह सरकार का तो क्या ही कहना वो तो पहले दिन से ही सीएए औरर एनआरसी के मामले को हिंदू और मुसलमान का रूप देने की कोशिश कर रहे थे। शाहीन बाग की औरतें जब ये कह रहीं थी कि ये संविधान बचाने की लड़ाई है, आप तब भी इसे हिन्दू-मुसलमान में बांट रहे थे। इस कानून से हिन्दू-मुसलमान सभी चिंतित थे लेकिन आप चिंता के नाम पर भी यही कह रहे थे कि मुसलमान इस कानून से न डरें। ऐसा क्यों है कि जिस दिन अमित शाह दिल्ली चुनाव का शुभारंभ करते हुए टुकड़े-टुकड़े गैंग को सबक सिखाने की बात करते हैं उसी दिन जेएनयू में हमला होता है और पुलिस कुछ नहीं करती है।

जिस दिन गृहमंत्री शाहीन बाग में करंट लगाना चाहते हैं, उसी दिन अनुराग ठाकुर गोली मारो का नारा देते हैं। प्रवेश वर्मा कहते हैं कि ये लोग आपके घरों में घुस जाएंगे, जामिया और शाहीन बाग में गोली चल जाती है। जिस दिन भाजपा के कपिल मिश्रा अपने समर्थकों को लेकर सड़क पर उतरते हैं और पुलिस के सामने रास्ता खोलने के लिए तीन दिन का अल्टीमेटम देते हैं उसी दिन दिल्ली में दंगा हो जाता है। अब इसे दंगा कहें या फिर सोचा समझा हमला।

यूपी में 23 लोगों की मौत कैसे हुई

उत्तर प्रदेश में 23 लोगों की मौत हो जाती है लेकिन शासन-प्रशासन ये दावा करते रहते हैं कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई। जब गोली चलाने के सुबूत सामने आ जाते हैं तब कहा जाता है कि पुलिस की गोली से कोई नहीं मरा। जब उसका सुबूत मिलता है तो कहा जाता है कि सेल्फ डिंफेंस में मारा गया। और ये सब बातें भूलकर एक बार फिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुस्करा कर कहते हैं कि पुलिस की गोली से कोई नहीं मरा। लेकिन दिल्ली में एक हेड कॉन्सेटबल की मौत के तुरंत बाद मीडिया बिना वक्त बर्बाद करे कहती है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों की हिंसा में हेड कॉन्सेटबल की मौत हो गई।

हेड कॉन्सेटबल रतनलाल की जान जाना बेहद दुखद है, उन्हें शहीद कहा जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने अपनी ड्यूटी पर अपनी जान गंवाई। लेकिन उनकी शहादत को सलाम करते हुए ये सवाल तो पूछा जाना चाहिए कि पुलिस प्रशासन बताए कि उनकी मौत की वजह क्या है और बिना जांच-पड़ताल के कैसे मीडिया ने तुरंत ये चला दिया कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों ने उन्हें मारा। ये भी सवाल पूछा जाना चाहिए कि हेड कॉन्सेटबल समेत अब तक मारे गए बाकी लोगों की हत्या का दोषी कौन है। कौन लेगा जिम्मेदारी।

जो सीएए-एनआरसी विरोधी बार-बार पूछ रहा है कि जब उनका आंदोलन दो महीने से भी लंबा चल रहा है और पूरी शांति के साथ चला तो क्या वजह है कि जब सीएए समर्थक सड़कों पर उतरते हैं तो हिंसा होती है? आज जो कुछ भी हो रहा है उसका माहौल बहुत मेहनत से और लंबे वक्त से बनाया जा रहा था। लोगों के मन में एक-दूसरे के खिलाफ नफरत भरी जा रही थी और उसी का प्रयोग सत्ता पाने, बचाने और बढ़ाने के लिए बार-बार किया जा रहा था। लेकिन इस बार हमला बड़ा है और निशाना हमारा संविधान है।