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वो कत्ल, जिसने UP की राजनीति में बो दिया अपराध का बीज

उत्तर प्रदेश अपने एक विधायक महेंद्र सिंह भाटी की हत्या के बाद हिल गया था। 13 सितंबर, 1992 को दादरी के इस विधायक की हत्या हुई थी और मुलायम सिंह यादव के बाद में बेहद खास बन गये डीपी यादव पर अपने इस राजनीतिक गुरु की हत्या का आरोप लगा था। गुर्जर राजनीति में 80-90 के दशक में महेंद्र सिंह भाटी और राजेश पायलट का ही नाम प्रमुखता से लिया जाता था। यह भी कहा जाता है कि राजेश पायलट खुद भी इस बात को मानते थे कि भाटी उनसे भी अधिक लोकप्रिय थे। कुछ लोग कहते हैं राजेश पायलट तो भाटी से इस कदर प्रभावित हो गये थे कि उन्हें कांग्रेस में भी बुलाने की कोशिश थी, लेकिन रामविलास पासवान, शरद यादव और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेताओं से अपनी करीबी की वजह से वे कभी इसके लिए राजी ही नहीं हुए।

भाटी के बारे में बताया जाता है कि नोएडा और ग्रेटर नोएडा क्षेत्रों में जो कारखाने स्थापित हो रहे थे, वहां उन्होंने बहुत से बेरोजगारों को नौकरी दिलवाई थी। रसूख उनका इतना तगड़ा था कि नये-नये लोगों को भी अपने साथ वे आसानी से ले आते थे। डीपी यादव जो उस वक्त तक राजनीति में नहीं आये थे और शराब का कारोबार करते थे, एक बार जहरीली शराब के कारण साढ़े तीन सौ लोगों की जान जाने के बाद बुरे फंसे थे और राजनीति में आकर ही उन्होंने समझा कि उनका बचाव हो पायेगा। धीरे-धीरे भाटी और यादव की दोस्ती हुई और मशहूर भी हो गई। डीपी यादव, जिन्होंने महेंद्र सिंह भाटी को अपना राजनीतिक गुरु भी मानना शुरू कर दिया, उन्हें भाटी ने बुलंदशहर से विधायक भी टिकट भी दिला दिया और खुद दादरी से चुनाव लड़े। दोनों की जीत भी हो गई।

नये सांचे में ढलने लगे रिश्ते

राजनीति इस वक्त तेजी से बदल रही थी। दोनों की दोस्ती पर भी इसका प्रभाव पड़ा था। केंद्र में जनता दल (नेशनल फ्रंट) के नेता वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने गये थे और दूसरी ओर यूपी में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री। जनता दल ने समर्थन खींचा तो वीपी सिंह की सरकार भी चली गई। मुलायम ने चंद्रशेखर के साथ होकर अपनी गद्दी बचा ली थी। जब मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह के बीच दरार आनी शुरू हुई तो उसी दौरान डीपी यादव और भाटी के रिश्ते भी प्रभावित होने लगे। यादव मुलायम तो भाटी अजित सिंह के साथ हो लिये। महेंद्र फौजी और सतवीर गुर्जर जिनके बीच गैंगवार उस वक्त चरम पर था, फौजी से डीपी यादव ने अपना रिश्ता जोड़ लिया तो सतवीर गुर्जर को भाटी ने शरण दे दी। उधर, डीपी यादव भले ही मुलायम सिंह के मंत्रिमंडल में भी पहुंच गये, मगर दादरी में तो अब भी तूती महेंद्र सिंह भाटी की ही बोल रही थी।

गैंगवार की पराकाष्ठा

वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों पक्षों में जमकर गोलीबारी हुई, जिसकी वजह से कई लोगों की मौत हो गई। किसी तरह से डीपी यादव जीत तो गये, लेकिन अब हत्याओं का दौर शुरू हो गया। पहले महेंद्र सिंह भाटी के छोटे भाई राजवीर सिंह भाटी की हत्या हुई, तो फिर डीपी यादव के कई करीबियों की। फिर 1992 में गाजियाबाद के भाजपा जिलाध्यक्ष प्रवीण भाटी की हादसे में मौत के बाद उनके परिजन भी इसे हत्या मानकर डीपी यादव के साथ हो लिये। दोनों ओर से अब घमासान होने लगा था। 13 सितंबर को एक इंस्पेक्टर के फोन करके बुलाने के बाद भंगेल जाने के क्रम में रास्ते में आखिरकार महेंद्र सिंह भाटी पर गोलियों की बौछार हुई और उनके साथ दोस्त उदय प्रकाश का भी मौके पर ही काम-तमाम हो गया।

हकीकत में तब्दील हुई आशंका

महेंद्र सिंह भाटी, जिन्हें पहले से ही अपनी हत्या का अंदेशा था, उन्होंने विधानसभा में जून, 1992 में लिखित में अपनी जान को खतरा बताते हुए सुरक्षा की मांग भी की थी, मगर कल्याण सिंह सरकार द्वारा उन्हें सुरक्षा नहीं उपलब्ध कराई गई और बस तीन महीने के बाद ही उनकी हत्या हो गई। आरोप दाखिल हुए इस मामले में प्रवीण के पिता तेजपाल भाटी, भाई प्रणीत भाटी, करण यादव, लक्कड़पाला और डीपी यादव पर। जांच सीबीआई को भी सौंपी गई। डीपी यादव अपने रसूख का इस्तेमाल न कर पाएं, इसलिए मामला सीबीआई देहरादून को भी स्थानांतरित किया गया।

आखिर मिल ही गया न्याय

आखिरकार डीपी यादव को उम्रकैद की सजा सीबीआई के विशेष न्यायाधीश अमित कुमार सिरोही की अदालत ने 28 फरवरी, 2015 को सुनाई, जिसके बाद महेंद्र सिंह भाटी के बेटे समीर भाटी ने इस पर संतोष जताया। दूसरी ओर सतवीर गुर्जर और महेंद्र फौजी का भी अलग-अलग एनकाउंटर में काम-तमाम हो चुका था। राजेश पायलट भी बाद में एक दुर्घटना में चल बसे। इन दोनों के बाद बहुत से गुर्जर नेता चुनाव जीते, मगर इनके जैसे गुर्जर नेता की पहचान किसी को नसीब न हो सकी।