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महाराष्ट्र की राजनीति में यूं ही नहीं बोलती ठाकरे परिवार की तूती

महाराष्ट्र की राजनीति की बात हो और ठाकरे परिवार का नाम न आये, यह संभव ही नहीं है। राज्य की राजनीति में ठाकरे की धनक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां मुख्यमंत्री के बंगले वर्षा से भी ज्यादा लोगों को ठाकरे परिवार के गढ़ मातोश्री के बारे में मालूम है। शिवसेना के संस्थापक और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पिता बाला साहब ठाकरे, जो कि बाल ठाकरे के नाम से लोकप्रिय रहे, उनसे सभी मातोश्री में ही आकर मिलते थे। वे खुद किसी के दरवाजे पर नहीं जाते थे। हालांकि, आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है कि यह राजनीतिक परिवार शुरू से ही मातोश्री में नहीं, बल्कि दादर में स्थित मिरांडा नामक एक चाल में रहता था।

इस चाल के बारे में बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे ने अपनी आत्मकथा माझी जीवनगाथा में लिखा है कि ग्राउंड पर यहां दो कमरे थे, जिनका आकार 10X10 का था। पहले तो बाहर का हिस्सा लकड़ी से निर्मित था, मगर बाद में यहां लोगों ने इसमें बदलाव लाकर बाहरी हिस्सा लोहे का कर दिया, जिससे कि मजबूती बरकरार रह सके। अपनी इस जीवनी में उन्होंने मिरांडा चाल को 100 वर्षों से भी अधिक पुराना बताया है। परिवार के सभी सदस्यों के लिए इसमें एक ही बाथरुम होने की बात कही गई है।

शुरुआती दिनों में

शुरुआती दिनों में ठाकरे परिवार की जिंदगी आसान नहीं थी। बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे एक समाज सुधारक और मराठी नाटककार जरूर थे, मगर इससे होने वाली कमाई पूरे परिवार की देखरेख के लिए पर्याप्त नहीं थी। ऐसे में उनकी मजबूरी थी रात में देर तक जगकर टाइपिंग का काम करने की, ताकि परिवार का गुजारा ठीक से चल सके। हालांकि, इसकी वजह से उनकी आंखें बहुत जल्द खराब हो गईं।

दक्षिण भारतीयों से नफरत क्यों?

चाल था तो यहां अलग-अलग लोग रहते ही। दक्षिण भारतीय लोग तमिल और मलयाली की संख्या अधिक थी। रिवाज के नाम पर वे नहाने से पहले तेल जरूर लगाते थे। ठाकरे परिवार के लोग बाद में नहाते थे, तो कई बार वे तेल की वजह से फिसल जाते थे। बार-बार मना करने के बावजूद न मानने पर उन्होंने बाथरुम के बाहर मीट का टुकड़ा रखना शुरू कर दिया, जिसकी वजह से ये शाकाहारी दक्षिण भारतीय नाराज हो गये। शिकायत करने पर प्रबोधनकार ठाकरे ने कहा कि यह उनका रिवाज है। इस तरह से जो तेल लगाने को लेकर अक्सर ठाकरे परिवार की दक्षिण भारतीयों के साथ यहां छोटे-मोटे झगड़े होते रहते थे, माना जाता है कि इसके कारण ही ठाकरे के मन में दक्षिण भारतीयों के प्रति नफरत पैदा हो गई थी।

कमाल की रचनात्मकता

बाल ठाकरे की धाक भले ही बाद में मुंबई में और महाराष्ट्र की राजनीति में ऐसी जमी कि उनकी तूती बोलने लगी और रूतबे व लाव लश्कर के साथ चलने एवं लोकतंत्र में विश्वास न होकर देश को ठोकशाही से चलाने की बात डंके की चोट पर करने की वजह से वे समकालीन सभी नेताओं में सबसे मुखर बने गये, लेकिन वे पूरी तरह से निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में बड़े हुए। भले ही पढ़ाई में वे कभी औसत से अधिक नहीं रहे, मगर रचनात्मकता उनकी गजब की थी। देश और दुनिया में क्या चल रहा है, उन्हें इसकी जानकारी खूब रहती थी। अपने कार्टून के जरिये वे कटाक्ष गजब की करते थे।

टेलीफोन डायरेक्ट्री ने झकझोरा

फ्री प्रेस जर्नल से उन्होंने अपनी नौकरी शुरू जरूर की, लेकिन बाद में उन्होंने मार्मिक नाम से अपनी खुद की पत्रिका निकालनी शुरू कर दी और इसी दौरान एक दिन टेलीफोन डायरेक्ट्री देखने पर उन्हें यह दक्षिण भारतीयों के नाम से भरी नजर आई, जबकि गिने-चुने मराठियों के नाम ही उन्हें इसमें नजर आये। इस तरह से उन्हें यह समझ आ गया कि भले ही मुंबई में यहां के स्थानीय निवासियों की संख्या अधिक हो, मगर उनमें से अधिकतर निम्न दर्जे का काम करके अपना गुजारा कर रहे हैं और दक्षिण भारत से आये लोगों ने यहां ऊंचे पदों पर कब्जा कर रखा है और इतनी अच्छी जिंदगी जी रहे हैं कि स्टेटस सिंबल टेलीफोन तक उन्होंने अपने घर में रखा हुआ है। उस वक्त टेलीफोन उन्हीं घरों में होना माना जाता था जो कि समृद्ध हों।

आक्रोशित हुए मराठी युवा

ठाकरे ने अब मराठी अस्मिता के लिए आवाज बुलंद करने की ठान ली थी। अपनी पत्रिका मार्मिक में उन्होंने दक्षिण भारतीय लोगों के नाम उनके पद के साथ रोज छापने शुरू कर दिये और इसके नीचे लिख देते थे कि पढ़ो और चुप रहो। धीरे-धीरे इसे पढ़कर बेरोजगार मराठी नौजवान उग्र होने लगे। इसी बीच कुछ समय के बाद ठाकरे ने पढ़ो और चुप रहो की जगह पढ़ो और बढ़ो लिखना शुरू कर दिया। मार्मिक के दफ्तर के बाहर रोज जमा होने वाले बेरोजगारों की ऊर्जा का इस्तेमाल करने का आइडिया प्रबोधनकार ठाकरे के दिमाग में आ गया, क्योंकि बेरोजगार इस बात से आक्रोशित थे कि दक्षिण भारतीय लोग उनकी नौकरी खा रहे हैं।

शिवसेना का गठन

इस तरह से केवल 18 लोगों की उपस्थिति में 19 जून, 1966 को सुबह साढ़े नौ बजे नारियल फोड़ कर शिवसेना का गठन हो गया, जिसे यह नाम प्रबोधनकार ठाकरे ने दिया था। इसी साल दशहरे के अवसर पर इस बात की आशंका के बावजूद कि भीड़ जुटेगी या नहीं, विशाल शिवाजी पार्क को पार्टी की पहली रैली के लिए चुन लिया गया और जो भीड़ यहां इकट्ठा हुई, उसके सामने शिवाजी पार्क बहुत छोटा पड़ गया। बाला साहब ठाकरे ने बेहद जोशीला भाषण दिया था, जिसे सुनने के बाद कहा जाता है कि युवाओं ने मुंबई के माटुंगा इलाके में दक्षिण भारतीय दुकानों में तोड़फोड़ भी मचाई थी। कहा जाता है कि यह सिलसिला काफी समय तक जारी रहा था।

शिवसेना अपनी उग्र विचारधारा के साथ ही महाराष्ट्र की राजनीति में आगे बढ़ती रही और बाद में राम मंदिर आंदोलन भी इसके एजेंडे में शामिल हो गया। बाल ठाकरे के बाद उनके बेटे उद्धव ठाकरे ने शिवसेना को आगे बढ़ाया और आज वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गये हैं। ठाकरे परिवार की तीसरी पीढ़ी यानी कि उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे भी राजनीति में उतर चुके हैं।