भारत में जब तीसरा राष्ट्रपति चुनाव चल रहा था तो इस वक्त विपक्ष की पूरी कोशिश थी कि जाकिर हुसैन इस चुनाव को जीत न सकें। यही वजह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी से जनसंघ तक समूचा विपक्ष इस दौरान जाकिर हुसैन के पीछे पड़ा हुआ था। जाकिर हुसैन का राष्ट्रपति चुना जाना इंदिरा गांधी के लिए नाक का सवाल बन गया था। विपक्ष लगातार यह प्रचार कर रहा था कि जाकिर हुसैन की हार का मतलब होगा इंदिरा गांधी का अपने पद से इस्तीफा देना। ऐसे में इंदिरा गांधी भी जाकिर हुसैन को जिताने की पुरजोर कोशिश कर रही थीं। वहीं, विपक्ष जाकिर हुसैन पर अपने हमलों को इतना तेज कर रहा था कि उन पर व्यक्तिगत आक्षेप तक लगाने शुरू कर दिये गये थे। विशेष तौर पर इस दौरान जनसंघ यह संदेश देने का प्रयास कर रहा था कि एक मुस्लिम को देश के राष्ट्रपति के तौर पर यह देश किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करने वाला। इस वजह से इस वक्त के हालात बेहद नाजुक नजर आ रहे थे।
किस बात का कांग्रेसियों को था डर?
कांग्रेसियों का इस बात का डर सता रहा था कि जाकिर हुसैन के चुनाव हारने की स्थिति में निश्चित तौर पर कांग्रेस सरकार के गिरने की संभावना बढ़ जायेगी। अभी-अभी 1967 का चुनाव हुआ था और निराशाजनक नतीजों के बाद भी किसी तरह से कांग्रेस की सरकार बन पाई थी। ऐसे में यदि फिर से चुनाव होते तो इस बात की बड़ी आशंका कांग्रेस के नेताओं को थी कि अबकी और बुरी हालत हो जायेगी। ऐसे में इंदिरा गांधी से उनकी चाहे कितनी भी असहमति क्यों न हो, क्रॉस वोटिंग का साहस वे नहीं कर सकते थे। वहीं, विपक्ष को इस यह अच्छी तरह से मालूम था कि बिना क्रॉस वोटिंग के जरिये उनकी नैया पार नहीं लगने वाली, क्योंकि जरूरी बहुमत उनके पास है नहीं। इस तरह से अंग्रेजी पत्रिका मेनस्ट्रीम में छपे एक लेख में उस दौर के चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव से ज्यादा इंदिरा गांधी के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव बताया गया था।
जेपी थे इंदिरा गांधी के समर्थन में
हालांकि, जिस जयप्रकाश नारायण यानी कि जेपी ने 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाये जाने के बाद उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और जिनके आंदोलन को आज हम जेपी क्रांति के नाम से भी जानते हैं, वही जेपी इस राष्ट्रपति चुनाव के दौरान इंदिरा गांधी के समर्थन में उतर आये थे और 1967 में 22 अप्रैल को अखबारों में उनके इस बयान को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया था कि जाकिर साहब का राष्ट्रपति नहीं चुना जाना देश की कौमी एकता के लिए बहुत बड़ा झटका होगा। देश के टुकड़े होने का भी खतरा इससे बढ़ जायेगा। यही नहीं, उस वक्त हिंदुस्तान टाइम्स ने भी अपने संपादकीय में एक सवाल उठा दिया था कि एक सच्चा मुसलमान यदि राष्ट्रवादी नहीं हो सकता है तो फिर एक सच्चा हिंदू कैसे? इसके बाद तो विदेशी मीडिया में भारत के इस राष्ट्रपति चुनाव को भारत के धर्मनिरपेक्ष होने के परीक्षण के तौर पर देखा जाने लगा।
देश को मिला पहला मुस्लिम राष्ट्रपति
फिर आई 1967 की 6 मई की वो शाम, जब ऑल इंडिया रेडियो (AIR) ने अपने प्रसारण को अचानक रोक कर राष्ट्रपति चुनाव में जाकिर हुसैन की जीत की खबर सुनाई। बताया गया कि जाकिर हुसैन को 8 लाख 38 हजार 170 में से 4 लाख 71 हजार 244 मत प्राप्त हुए, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी सुब्बाराव को 3 लाख 63 हजार 971 वोट ही नसीब हुए। भारत को इसके बाद अपना पहला मुस्लिम राष्ट्रपति मिल गया। इंदिरा गांधी खुशी से झूमती हुईं जाकिर हुसैन की जीत की खबर लेकर उनके घर मिठाई लेकर इस उम्मीद में पहुंचीं कि सबसे पहले वही उन्हें यह खबर सुनाएंगी, मगर उनके चेहरे पर उन्हें उम्मीद के मुताबिक खुशी इसलिए नहीं दिखी कि राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन पहले ही उन्हें फोन पर बधाई दे चुके थे।
फिर जामा मस्जिद से हुआ ऐलान
जाकिर हुसैन की इस जीत पर लोग झूम उठे थे। हर ओर जुलूस निकला था। जाकिर हुसैन की जीत का ऐलान जामा मस्जिद से किया गया था और इसके बाद राष्ट्रपति भवन के बाहर लोगों की भारी भीड़ भी जमा हो गई थी। वर्ष 1967 में 13 मई देश के तीसरे राष्ट्रपति के रूप में संसद के सेंट्रल हॉल में शपथ लेने वाले जाकिर हुसैन देश के ऐसे राष्ट्रपति थे, जिनके पिता का इंतकाल केवल तभी हो गया था जब वे केवल 10 साल के थे और मां भी तभी चल बसी थीं जब उनकी उम्र महज 14 साल की थी। हालांकि, अपनी तबीयत की वजह से जाकिर हुसैन अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और वर्ष 1963 में 3 मई को सुबह करीब पौने 11 बजे बाथरूम में उनकी मौत हो गई।