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सियाचिन ग्लेशियर को लेकर अक्सर चर्चा होती रहती है। एक ओर भारत की सेना तो दूसरी ओर पाकिस्तान की सेना यहां हमेशा आंख गड़ाए बैठी हुई नजर आ जाती है।

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भारतीय राजनीति का कायापलट करके रख दिया था इस आम चुनाव ने

भारतीय राजनीति का कायापलट करके रख दिया था 1962 का आम चुनाव, उसी वक्त से यह सवाल पैदा हो गया था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद आखिर कौन?
Information Anupam Kumari 30 December 2019
भारतीय राजनीति का कायापलट करके रख दिया था इस आम चुनाव ने

देश में जब 1962 में तीसरा आम चुनाव हुआ था, उसी वक्त से यह सवाल पैदा हो गया था कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद आखिर कौन? 1962 का आम चुनाव खत्म ही हुआ था कि इसके कुछ माह के बाद ही अक्टूबर में भारत और चीन का युद्ध हो गया। नेहरू जो कि हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा दे रहे थे, उनका तो सपना ही चूर-चूर हो गया। यह उनके लिए एक बड़ी पराजय थी। सदमे से उबर ही पाते कि इसके डेढ़ वर्ष के अंदर ही नेहरू ने हमेशा के लिए आंखें मूंद ली। कुछ समय के लिए गुलजारी लाल नंदा 1964 में कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने देश के प्रधानमंत्री के तौर पर कार्यभार संभाल लिया। एक बार फिर से 1965 में पाकिस्तान के साथ भारत का युद्ध हुआ। युद्धविराम व ताशकंद समझौता सोवियत संघ के हस्तक्षेप से हो पाया, मगर ताशकंद में ही लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई और इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री 1966 में बन गईं।

इतना भी आसान नहीं था उनके लिए देश चालान। वर्ष 1963 में जो उपचुनाव हुए थे, उसमें पहली बार लोकसभा में समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया फर्रूखाबाद से जीतकर पहुंच गए थे। गुजरात के राजकोट से स्वतंत्र पार्टी के मीनू मसानी भी लोकसभा में पहुंच गए। उसी तरह से मुंगेर से 1964 के उपचुनाव में जीत कर मधु लिमये लोकसभा के सदस्य बन गये। इस तरह से इंदिरा गांधी को घेरने के लिए लोकसभा में कई दिग्गजों की मौजूदगी हो गई थी।

जैसे-तैसे जीती कांग्रेस

अब आ गया 1967 का आमचुनाव। भारत का चीन और पाकिस्तान के साथ जो युद्ध हुआ था, इस चुनाव में वह प्रमुख मुद्दा बन गया था।दो प्रधानमंत्री की भी इससे पहले मौत हो गई थी। यह चुनाव अभूतपूर्व रहा। कांग्रेस को इसने बड़ा झटका दिया। इस बार चुनाव 494 सीटों के लिए नहीं, बल्कि 525 सीटों के लिए हुए थे। इस बार मतदाता 25 करोड़ थे और इनमें से 15 करोड़ 27 लाख लोगों ने मताधिकार का प्रयोग किया था। चुनाव का परिणाम आया तो कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत से केवल 22 सीटें ही ज्यादा मिलीं। इससे पहले कांग्रेस को तीन-चौथाई सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार उसकी हालत खराब हो गई। करीब 5 फीसदी की गिरावट वोट प्रतिशत में आ गई। कहां तो कांग्रेस को 1952 में 45%, 1957 में 47.78% और 1962 में 44.72% वोट हासिल हुए थे, लेकिन 1967 में उसे केवल 40.78% वोट ही मिल पाए। स्वतंत्र पार्टी ने राजस्थान, गुजरात और ओडिशा में कांग्रेस की हालत खराब की तो मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में जनसंघ ने कांग्रेस का जायका बिगाड़ा केरल और बंगाल में तो कम्युनिस्टों ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे डाली।

बाकी दलों का बर्चस्व

यह पहला ऐसा चुनाव था, जिसमें कांग्रेस को छोड़कर भी बाकी दलों का चुनावों में उदय होना भारत में शुरू हो गया। इस चुनाव में स्वतंत्र पार्टी को 44 सीटें हासिल हुई थीं और यह दूसरे स्थान पर रही थी। जनसंघ को भी 35 सीटें मिल गई थीं। यही नहीं, भाकपा ने 23 सीटों पर, जबकि माकपा ने 19 सीटों पर विजय हासिल की थी। दोनों का विभाजन न हुआ होता तो इनके सीटों की संख्या काफी होती। प्रज्ञा सोशलिस्ट पार्टी को 23 सीटें मिलीं तो लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को भी 23 सीटें इस चुनाव में मिल गईं। तमिलनाडु में द्रमुक भी 25 सीटें अपने नाम करने में कामयाब रही थी।

लोहिया का गैर कांग्रेसवाद का नारा

वैसे, जनता ने भी इस चुनाव में बड़ी परिपक्वता का परिचय दिया, क्योंकि देश को अनिश्चितकालीन भविष्य में धकेले जाने से बचाने के लिए केंद्र में कांग्रेस की सरकार तो उसने बनवा दी, मगर विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। जब कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थे तो ऐसे में लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया, जो कि रंग भी लाया। इस तरह से पहली बार 9 राज्यों में संयुक्त विधायक दल की गैर कांग्रेसी सरकार बन गई। संयुक्त विधायक दल की सरकार के बारे में उस वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी कि RSS के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ में तत्कालीन संपादक केआर मलकानी ने लिखा भी था कि संयुक्त विधायक दल की सरकारें कांग्रेस सरकारों से तो अच्छी ही साबित होंगी। यह अच्छा मौका है। हम कम्युनिस्टों को राष्ट्रवाद सिखा देंगे तो वहीं उनसे हम समाजवाद और समानता के कुछ दर्शन को भी समझ लेंगे।

कौन से दिग्गज कहां से जीते?

इस चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली से तो जॉर्ज फर्नांडिस दक्षिण मुंबई से जीतकर लोकसभा में पहुंचे। जनसंघ के नेता बलराज धमोक को दक्षिणी दिल्ली से तो सोशलिस्ट रवि राय को ओडिशा के पुरी से जीत मिली। बाद में मंडल आयोग के अध्यक्ष बने बीपी मंडल बिहार के मधेपुरा से तो बाद में राष्ट्रपति बने नीलम संजीव रेड्डी आंध्र प्रदेश के हिंदूपुर से चुनाव जीतकर लोकसभा के सदस्य बने। जनसंघ के टिकट पर बलरामपुर से अटल बिहारी वाजपेयी जीत गए तो वहीं मध्य प्रदेश की गुना सीट से कांग्रेस छोड़कर स्वतंत्र पार्टी से खड़ी हुईं विजयाराजे सिंधिया जीत गईं। लगातार चौथी बार भी बाबू जगजीवन राम को बिहार के सासाराम सीट से जीत नसीब हुई।

Anupam Kumari

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