आज मुंबई में हजारों की संख्या में लोग बांद्रा स्टेशन पर पहुंच गए। लॉकडाउन के वक्त में आखिर क्यों मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर उमड़ा हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूरों का जन सैलाब । ये हजारों लोग कर क्या रहे थे? क्या कोई उत्सव था, या फिर कोई रैली? नहीं सड़कों पर आने जैसा कुछ भी नहीं था, हां लेकिन भूख जरूर थी। ये जो लोग मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर हजारों की संख्या में जमा हुए थे, ये प्रवासी मजदूर थे। ये लोग अपने गांव वापस लौटना चाहते थे। क्योंकि न तो अब इनके पास काम है, न पैसा बचा है और अब भूख का सामना करने की ताकत नहीं बची है। जिस वजह से लॉकडाउन टूटा, सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ीं और नतीजन पुलिस ने लाठीचार्ज किया, भीड़ भागी और केस दर्ज हुआ।
क्या सिर्फ ये मजदूर ही दोषी हैं?
हां ये प्रवासी मजदूर दोषी है, जो ये बड़े शहर में अपनी जिंदगी बेहतर बनाने के लिए चले आए। लेकिन क्या वो रेलवे दोषी नहीं है, जिसने 15 अप्रैल से 3 मई के बीच चलने वाली ट्रेनों के लिए 39 लाख टिकट बुक कर लिए। जब एक के बाद राज्य ऐलान कर रहे थे कि लॉकडाउन बढ़ाया जाएगा। जब एक के बाद एक एक्सपर्ट कह रहे थे कि इतना लॉकडाउन कोरोना को रोकने के लिए काफी नहीं है, तो रेलवे ने क्यों एडवांस में टिकट बुक होने दिए? अगर उम्मीद थी कि 14 अप्रैल के बाद लॉकडाउन खत्म हो जाएगा, तब भी ऐहतियातन यात्रियों को क्यों नहीं सूचित किया कि ट्रेन का चलना इसपर निर्भर करता है कि 14 अप्रैल को सरकार लॉकडाउन पर क्या फैसला करती है?
हजारों प्रवासी मजदूर बांद्रा वेस्ट में जमा हुए, जबकि बाहर की ट्रेन चलती हैं बांद्रा ईस्ट से। तो इनसे किसने कहा कि ट्रेन वेस्ट से चलेगी और क्या पुलिस उस शख्स को खोजेगी जिसने ये खबर फैलाई? महाराष्ट्र सरकार में मंत्री नवाब मलिक ने कहा है कि ट्रेन शुरू होने का एक मैसेज सर्कुलेट होने के बाद मजदूर बांद्रा स्टेशन पर जमा हुए। गृहमंत्री अनिल देशमुख ने कहा है कि – अफवाह किसने फैलाई, ये पता लगाने के लिए जांच बिठा दी है।
अपीलों से पेट नहीं भरता
उन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई होगी क्या, जिन्होंने इन प्रवासी मजदूरों को बेसहारा छोड़ दिया है। महाराष्ट्र में सत्ताधारी कह रहे हैं कि मजदूर खाना नहीं मांग रहे, वो सिर्फ घर जाना चाहते हैं। सालों से मुंबई में रहने वाले मजदूर कोरोना संक्रमण का डर रहते हुए भी और लॉकडाउन में कानूनी कार्रवाई होने का डर होते हुए भी गांव जाने का जोखिम क्यों उठाना चाहते हैं? कुछ को दाना-पानी दे भी देंगे तो बाकी चीजों का क्या? लॉकडाउन में उनकी रोजी छिन गई है।
जो नेता बांद्रा में हुई घटना के पीछे सियासी साजिश का एंगल ढूंढ रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि जिस दिन बांद्रा में ये सब हो रहा था, उसी दिन ठाणे में भी सड़कों पर हजारों मजदूर निकल आए थे। उन्हें सूरत का वो मंजर भी याद रखना चाहिए, जिसमें प्रवासी मजदूर अपने गांव जाने के लिए सड़कों पर निकल आए थे, प्रदर्शन कर रहे थे। इससे पहले लॉकडाउन का ऐलान होते ही लाखों मजदूरों को पैदल घर जाते हम देख चुके हैं। मजदूरों की तकलीफ एक तरफ, दूसरी तरफ लॉकडाउन का मकसद फेल। जिम्मेदार कौन?
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मजदूर अपने गांव से सैकड़ों किलोमीटर दूर अपना घर-परिवार छोड़कर सिर्फ अपना पेट भरने के लिए शहर नहीं आता, उसके मेहनतकश हाथ यहां चलते हैं तो वहां गांव में उसके बच्चों को निवाला मिलता है। आप इन प्रवासी मजदूर को खाना दे भी देंगे तो वहां गांव में उसका परिवार कौन चलाएगा? यहां आप राशन दे भी देंगे तो कमरे का किराया कौन देगा? लॉकडाउन-1 से लॉकडाउन-2 आ गया, लेकिन मजदूरों की इन चिंताओं का कोई जवाब नहीं आया। क्यों नहीं आपने इन मजदूरों के खाते में मदद के रूप में कुछ पैसे ट्रांसफर किए? क्या आप दोषी नहीं हैं?
कुछ किया नहीं तो शहर-शहर से निकलेंगे ऐसे लोग
बांद्रा स्टेशन पर जमा हुए प्रवासी मजदूरों क जन सैलाब के खिलाफ अवैध रूप से जमा होने, दंगा करने, सरकार की ड्यूटी में खलल डालने और सरकारी आदेश न मानने की धाराओं में केस दर्ज हुआ है। केंद्र इनकी मदद करने की जगह, इनकी तकलीफों पर सिर्फ मदद की अपील से मरहम लगाना चाहती है। राज्य सरकार, केंद्र से इन्हें गांव भेजने की अपील कर, इनसे छुटकारा पाना चाहती है। महाराष्ट्र में भाजपा के नेता इस घटना पर पूछ रहे हैं कि खुफिया विभाग क्या कर रहा था? आखिर कैसे इतने मजदूर स्टेशन पर जमा हो गए? हकीकत ये है कि इसको पता लगाने के लिए किसी खुफिया विभाग की जरूरत नहीं कि मुंबई ही नहीं, देश के तमाम महानगरों में फंसा मजदूर घर जाने को बेचैन है। वो क्यों बेचैन है? इसी में सारे सवालों के जवाब हैं। अगर इनकी बेचैनी को दूर नहीं किया गया तो शहर-शहर ऐसे प्रवासी मजदूर बाहर निकल सकते हैं, और देश में ऐसे लोगों की तादाद 40-50 करोड़ है।