आज कोरोना वायरस भी सोचता होगा कि किन जाहिलों को मैं मार रहा हूं, इन्हें मेरी जरूरत ही नहीं क्योंकि ये आपस में ही मर जाएंगे। क्योंकि अब मीडिया ने कोरोना जिहाद जो निकाल लिया है और पूरे-पूरे दिन मीडिया पर तबलीगी जमात, निजामुद्दीन मरकज, मुसलमान और उनकी साजिश चलती रही है। मीडिया ने कोरोना फैलाने के लिए उन्हें अपराधी करार दे दिया है। आजकल हिंदुस्तान में कानून व्यवस्था का चलन ही ये है कि पहले मीडिया फैसला सुनाती है उसके आधार पर जज साहब कोर्ट में अपना फैसला सुनाते हैं। अभी निजामुद्दी मरकज को ही देखिये ने सरकार ने कानून को हुक्म दिया और शाम होते होते तक 7-8 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली गई। इसे लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। आगे भी तमाम झूठे सच्चे अफसाने सुनाये जाते रहेंगे।
फंसे और छिपे का ही खेल है
लेकिन इस मामले में दो शब्दों ने बहुत जोर पकड़ा और ये साफ दिखाई दिया कि कैसे शब्दों का इस्तेमाल मजहब के हिसाब से किया जाता है। कुछ दिन पहले खबरें आ रही थी कि श्रद्धालु वैष्णो देवी में, गुरुद्वारे में, तिरुपति बालाजी में देशबंदी की वजह से रुके हुए हैं और वो वहां पर फंंस गए हैं। मीडिया ने कहा कि ये लोग इन जगहों पर फंस गए हैं, लेकिन जैसे ही निजामुद्दीन मरकज में ठहरे हुए लोगों की बात सामने आई तो ये लोग वहां पर छिपे हुए थे। मंदिर में लोग फंस गए थे और मस्जिद में लोग छिप गए थे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि इस तरह से शब्दों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाए।
मरकज में मुसलमानों के ‘छिपे होने’ और वैष्णो देवी मंदिर में श्रद्धालुओं के ‘फंस होने’ के बीच में जो भाषा का अंतर है वो एक खास उद्देश्य से बना है। मुसलमानों के प्रति इस देश में आजादी के बाद से ही भाषा ने इसी तरह के रूप रचे हैं। और ये वक्त वक्त पर बहुसंख्यक समाज की संतुष्टि के लिए इस्तेमाल होते आए हैं। इतिहास की तमाम स्कूली किताबों में भी हमें इसी तरह से पढ़ाया जाता है। जैसे कि आर्यों का आगमन हुआ और मुगलों का आक्रमण। तिब्बत या नेपाल या मॉरिशस से आया हुआ कोई व्यक्ति या अनेक व्यक्ति इस देश में शरणार्थी बनकर आए जबकि बांग्लादेश या पाकिस्तान से आए हुए लोग यहां पर घुसपैठिए हो गए?
गोडसे ने भी तो गांधी वध किया था
अक्सर हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े लोग नाथूराम गोडसे के द्वारा की गई महात्मा गांधी की जघन्य हत्या को गांधी वध भी कह देते हैं, क्योंकि वध भारतीय जनमानस और हिन्दू जन मानस के लिए धर्म रक्षार्थ में की गई कार्यवाही होती है। तिब्बत या नेपाल या मॉरीशस से आने वाले भी बेहतर जिंदगी की तलाश में यहां पर आते हैं तो बांग्लादेशी और पाकिस्तानी या अफगानी भी यहां पर उसी जिंदगी का सपना लेकर आते रहे हैं फिर क्यों इनके बीच शरणार्थी और घुसपैठिये जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है।
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भाषा केवल मजहबों के स्तर पर ही नहीं बल्कि बल्कि लैंगिक मामलों में तो इसने इतनी गहराई से काम किया है कि पति का ये पूछना कि आज अखबार नहीं आया क्या? पत्नी को ये समझ में आता है कि वो दौड़कर घर के बाहर से पति को अखबार लाकर दे देती है। इसका जवाब हां या नहीं भी हो सकता है लेकिन पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था में पत्नियां ये सोच भी नहीं पातीं। यही हाल आरक्षण के मामले में हिन्दू समाज का रहा है। यही हाल इस देश में अल्पसंख्यक समाज के साथ होता आ रहा है।
ये किसी एक सरकार ने नहीं किया है हर बार हर सरकार ने किया है। हर किसी ने बहुसंख्यकों का इस्तेमाल अपने हिसाब से किया है और चोट अल्पसंख्यक को खानी पड़ी है। चाहे फिर वो मोदी सरकार हो या फिर कांग्रेस की सरकारें रही है। निजामुद्दीन में जो हुआ वो गलत था, किसी भी तरह से उसका समर्थन करना बेबुनियाद और बेवकूफी है। लेकिन इसका किसी मजहब से कुछ लेना देना हो सकता है क्या और ये जो शब्दों का चयन किया जाता है ये कोई मामूली बात नहीं है बल्कि एक सोची समझी रचना होती है।