उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल पूरा गरम है। लगातार रैलियां, फैसले और आरोप-प्रत्यारोप का काम चल रहा है। लेकिन अगर कुछ बड़ा खेल नहीं हुआ तो हो सकता है कि योगी आदित्यनाथ ही दोबारा वापिस आ सकते हैं। अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में आजकल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लोग उनके नाम या पदनाम से नहीं पुकारते हैं बल्कि लोग उन्हें अब “महराज जी” कहकर बुलाने लग गए हैं।
महराज शब्द एक विशेषण है जो पहले इस अंचल में साधु-संन्यासियों या फिर गुरुओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है। खैर बात यहां पर विशेषण की है ही नहीं बल्कि यूपी चुनाव की है जिसमें फिलहाल योगी आदित्यनाथ ही सबसे आगे नजर आ रहे हैं। हालांकि चुनावी सर्वे में लगातार ये कहा जा रहा है कि उनकी सीटें कम हो रही है और विपक्ष खासकर अखिलेश का दबदबा बढ़ रहा है। खैर ये तो अभी वक्त बताएगा कि ये कब तक ऐसे चलता है।
कुछ हफ्ते पहले तक तमाम वजहों से यूपी में भाजपा नुकसान पर नुकसान उठाते दिख रही थी। मगर लखीमपुर खीरी हादसे के बाद जितनी तेजी से खराब होते दिखे उतनी ही तेजी से अब सुधरते भी नजर आ रहे हैं। लखीमपुर को इसलिए भी विपक्ष चुनाव लायक मुद्दा नहीं बना पाया क्योंकि पश्चिम को छोड़ दिया जाए तो यूपी के शेष इलाकों में किसान आंदोलन पर वही ताल सुनाई देगा जो भाजपा गाती रही है।
हालांकि लखीमपुर के बाद ही भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व और सांगठनिक मशीनरी ने तेजी से डैमेज कंट्रोल की कोशिशें शुरू कीं। वैसे भी भारतीय मतदाताओं की याददाश्त इतनी कमजोर होती है कि वो पिछली बातें भुलाने में ज्यादा वक्त नहीं लेता। फिलहाल तो स्थितियां भाजपा के पक्ष में मानी जा सकती हैं और कम से कम अभी तक।
लेकिन इस वक्त के हालात के आधार पर भविष्य में भाजपा के लिए विपक्ष की चुनौती से ज्यादा बड़ा खतरा कुछ और नजर आ रहा है। और वो कोई राजनीतिक पार्टी या फिर मुद्दा या फिर कोई जाति या धर्म नहीं है, बल्कि वो तो कोरोना वायरस का नया वैरिएंट ओमिक्रॉन ही है। ओमिक्रॉन वैरिएंट का शोर बहुत तेजी से बढ़ रहा है और माना जा रहा है कि जनवरी-फरवरी में ओमिक्रॉन वैरिएंट से उपजी तीसरी लहर पीक पर होगी।
वहीं अगर देखा जाए तो जनवरी के बाद कभी भी चुनाव कराए जा सकते हैं। यानी जब लहर पीक पर होगी उसी दौरान चुनाव होंगे, क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों की सत्ता में ही भाजपा काबिज है तो तमाम चीजों के प्रति उसकी जवाबदारी भी तय है। हालात बिगड़े तो बने बनाए खेल पर पानी फिर जाएगा और जो विपक्ष अभी मोदी-योगी-मौर्य की तिकड़ी के आगे कमजोर नजर आ रहा भारी एक झटके में भारी साबित हो जाएगा।
अभी देश में ओमिक्रॉन वैरिएंट के मामले गिने-चुने हैं मगर दूसरी लहर से मिले राजनीतिक सबक को भाजपा भूली तो नहीं होगी। अगर आप गौर करें तो देखेंगे कि ओमिक्रॉन वैरिएंट के खिलाफ काफी सतर्कता बरती जा रही है। केंद्र सरकार और उसके तमाम अंग सक्रिय हैं, जागरूकता अभियान लगातार चलाए जा रहे हैं। ओमिक्रॉन वैरिएंट के गिने चुने मामलों के बावजूद मुख्यधारा का मीडिया जरूरत से ज्यादा कूद रहा है। एक्सपर्ट पैनल बैठाए जा रहे और जागरूकता इस तरह प्रसारित हो रही है कि देश ओमिक्रॉन वैरिएंट को लेकर बड़े संकट के बीच फंस चुका है। यूपी सरकार ने भी तो तीसरी लहर की आशंका को लेकर अलग से इंतजाम किए गए हैं। सक्रियता साफ नजर आती है।
दरअसल, बंगाल में भाजपा एक बार गर्म दूध से मुंह जला चुकी है और यूपी की तरह बंगाल में ममता बनर्जी के खिलाफ सबकुछ भाजपा के पक्ष में नजर आ रहा था। पूरी बरात सजी थी, रंग बिरंगे कपड़ों में लोग तैयार थे। तंबू भी लग चुका था, सबकुछ चकाचक था। लेकिन अप्रैल में अचानक से कोविड-19 की दूसरी वेव का तूफान आया और भाजपा का पूरा तंबू उखाड़ा गया। सारी सजावट तहस-नहस हो गई, हालांकि बंगाल में भाजपा की हार का मुद्दा अकेले दूसरी लहर की महामारी तो बिल्कुल नहीं कह सकते है। लेकिन उस वक्त महामारी वो ढाल जरूर बन गई पहली बार जिसकी आड़ में अन्य मुद्दों को लेकर भाजपा पर विपक्ष के घाव देने वाले होने लगे। महामारी के मुद्दे पर पहली बार भारतीय मीडिया की मोदी से कुट्टी नजर भी दिखी थी।
अप्रैल में तो टीवी, अखबारों में हर तरफ महामारी की खौफनाक कहानियां तस्वीरें, अस्पतालों की अव्यवस्थाएं, दवाइयों, मेडिकल ऑक्सीजन की किल्लत नजर आ रही थीं। पहले मोदी विरोध के लिए बदनाम या विदेशी मीडिया समूह ही भाजपा के आलोचक नजर आते थे, जिनपर मोदी समर्थक जनता कभी भरोसा करते नहीं दिखी। लेकिन अप्रैल में जब मोदी समर्थन के लिए मशहूर अखबारों और टीवी चैनलों ने भी अव्यवस्थाओं को लेकर सख्त रवैया अपनाया तो हालात ही बदल गए है। ये बंगाल चुनाव में भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ा यूटर्न साबित हुआ।
अचानक बदली हवा में विपक्ष, खासकर ममता बनर्जी कई मनमाने तर्कों पर भी जनता का भरोसा जीतने लगीं और भाजपा को बंगाल में कुछ भी हासिल नहीं हुआ। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि बाजपा बंगाल में महामारी की वजह से हारी, लेकिन दूसरी लहर की वजह से ममता बनर्जी को बंगाल के लोगों के बीच में अपनी बात मनवाने का रास्ता मिल गया था। वैसे ही अगर बात करें उत्तर प्रदेश की तो फिलहाल ऐसा कोई बहुत बड़ा मुद्दा भाजपा के खिलाफ नहीं बन पा रहा है। ना तो कोई बहुत मजबूत नेता है जिसकी लहर हो।
अखिलेश यादव भी अकेले भरोसे पर नहीं है वो तबके के नेताओं को मिला कर जाति की राजनीति करने के मूड में हैं ताकि भाजपा विरोधी वोट ना बंटे। मायावती को त्रिकोण संघर्ष में उम्मीदें नजर आ रही हैं। मथुरा जैसे मुद्दों को खड़ाकर वेस्ट में भाजपा को जो थोड़ा बहुत नुकसान हुआ है उसे कवरअप कर रही है। भले ही किसान आंदोलन की वजह से माहौल खिलाफ हों, लेकिन वक्त के साथ वेस्ट के भी हालात भाजपा अपनी ओर करने की कोशिश करेगी।
लेकिन योगी आदित्यनाथ या भारतीय जनता पार्टी के लिए ओमिक्रॉन वैरिएंट भविष्य में बुरे सपने की तरह हो सकता है। भाजपा इस वक्त सिर्फ इसी दुआ में हाथ उठा रही होगी कि महामारी की इस लहर का विस्तार ना हो। कम से कम यूपी चुनाव से पहले तक उसका साया टला ही रहे। क्योंकि भाजपा को ये यह तो पता ही है कि जनता की याददाश्त भले कमजोर क्यों ना हो, मगर वो हद से ज्यादा भावुक है। वैसे भी दूसरी लहर के दौरान गंगा में तैरती लाशें भाजपा के लिए सिरदर्द बन सकती है। ऐसा ही कुछ अगर चुनाव के वक्त पर हुआ तो उसका नुकसान काफी गहरा होगा और ये भाजपा को सत्ता से खदेड़ सकता है।