उत्तर प्रदेश की सियासत (UP politics) की तस्वीर अब कुछ हद तक साफ होने लग गई है। एख धुंधले आईने में काफी कुछ दिखने लग गया है। जैसे कि प्रदेश में जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगने और जनता को ठगने वाली पार्टियों की सौतने बाजार में आ गई है। उनके जैसे एजेंडे पर सियासत करने वाली राजनीतिक पार्टियां यूपी में तैयार हो चुकी है और कई बड़े-बड़े नामों को डंक मारने वाली है। धर्म और जाति के नाम पर पैदा हो रहे छोटे दल अगर धर्म-जाति की राजनीति पर राज करने वाले बड़े दलों को कमजोर करेंगे तो ये समझ कर राहत महसूस होगी कि जहर ही जहर को काटने को तैयार हो रहा है। कम से कम धर्म और जातिवाद की राजनीति करने वाले आपस में टकरा कर ही सही कमजोर तो होंगे और ये भारत की राजनीति में शायद एक सकारात्मक कदम होगा।
लोकतांत्रिक व्यवस्था (democratic system) और मतदाताओं के लिए विकल्प मुफीद होते हैं। दुकानों का अभाव हो तो खरीदार को खराब क्वालिटी का सामान खरीदने पर मजबूर होना पड़ता है और वो भी मुंह मांगे दामों पर भी लेना पड़ता है। लेकिन वहीं जब मार्केट में और भी दुकानें होती है तो खरीददार के पास मौका होता है कि वो दूसरी दुकान का दरवाजा खटका सकता है। अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में पहले से मौजूद दलों से जो भी मतदाता नाराज है उनके लिए नई दुकानें यानी की नए राजनीतिक दल भी मौजूद होने वाले हैं। जहां एक तरफ भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों और सपा-बसपा जैसे क्षेत्रिय दलों के अलावा दलितों-पिछड़ों और मुसलमानों के कथित खैरख्वाह कुछ छोटे दल एक मोर्चा तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं।
जिसमें AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर के गठबंधन के साथ भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद रावण भी शामिल होंगे तो मुस्लिम, पिछड़ा-दलित वोटबैंक को एक प्लेटफार्म पर लाने के लक्ष्य पर काम किया जाएगा। कहा ये जा रहा है कि इस तरह का मोर्चा भाजपा से मुकाबले का दावा कर रहे सपा के लिए के लिए घातक साबित हो सकता है। ओवैसी के कारण मुस्लिम वोट का बंटवारा होगा तो भाजपा से खफा गैर यादव पिछड़ा वर्ग राजभर के पाले में जा सकता है और इससे समाजवादी पार्टी को नुकसान हो सकता है।
इसी तरह बसपा के दलित वोट बैंक में चंद्रशेखर आजाद रावण सेंध लगाने के लिए पूरी तरह से तैयार है। हांलाकि इस मोर्चे के मुख्य कर्ताधर्ता ओम प्रकाश राजभर खुद स्थिर नहीं हैं। कभी ओवेसी और चंद्रशेखर आजाद और अन्य दलों के साथ फ्रंट को मजबूती देने की बात करते हैं तो कभी वो सपा, बसपा या कांग्रेस के साथ जाने के विकल्पों को दोहरा रहे हैं। अभी इस पर साल गुजरते-गुजरते काफी बदलाव हो सकते हैं।
ओवेसी, राजभर और रावण गठबंधन करते हैं तो इससे भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा होगा और सपा-बसपा और कांग्रेस जैसे धर्मनिरपेक्ष दलों का नुकसान होना तय है। ये धारणा गलत भी साबित हो सकती है। लेकिन इसकी संभावना कम लगती है। सिक्के के दूसरे पहलू को देखिए तो उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव और पिछले 2 लोकसभा चुनावी नतीजों में भाजपा ने यूपी के सपा-बसपा के जनाधार पर सेंध लगाकर ओबीसी और दलितों के विश्वास को जीतकर भारी बहुमत से पिछले तीन चुनावों (एक विधानसभा और दो लोकसभा) में जीत हासिल की थी।
यानी आज सबसे पिछड़ा और दलित समाज भाजपा के जनाधार से जुड़ा है। इस लिहाज से राजभर और चंद्रशेखर रावण की पिछड़े-दलितों को साथ लाने की कोशिशें भाजपा को भी नुकसान पंहुचा सकती हैं। उधर कहा ये भी जा रहा है कि यूपी में किसी हद तक ब्राह्मण समाज भाजपा से नाखुश चल रहा है। यदि ये सच है और कांग्रेस ने ब्राह्मण मुख्यमंत्री का इशाराभर भी कर दिया और ज्यादा ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे तो यहां भी भाजपा का ये पारंपरिक कोर वोट बैंक टूट सकता है।
यूपी के चुनावों के मद्देनजर समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी ने मिलकर अंदरखाने एक साइलेंट रणनीति तैयार की है। जिसके तहत आम आदमी पार्टी भाजपा से नाराज उन भाजपाई मतदाताओं को प्रभावित कर भाजपा का वोट काटने की तैयारी करेगी जो सपा, बसपा और कांग्रेस को विकल्प नहीं चुनते हैं। जातिवाद और धर्मनिरपेक्षता से अलग आप राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दों को लेकर भाजपा के विकल्प के तौर पर खुद को पेश करेगी। पेट्रोल के बढ़ते दाम, मंहगी बिजली, मंहगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं और कोविड में बद इंतेजामी को लेकर सामान्य वर्ग का एक तब्का भाजपा से नाखुश होकर भी विकल्प के अभाव में मजबूरी में दोबारा भाजपा के समर्थन की बात कर रहा है।
सपा, बसपा और कांग्रेस को बेहतर विकल्प न मानने वाले ऐसे तब्के पर डोरे डालने के लिए आम आदमी पार्टी लोकलुभावने वादों के साथ चुनाव में उतरेगी और भाजपा के लिए वोटकटवा बनकर सपा को फायदा पंहुचाने की कोशिश भी करेगी। सब कुछ ठीक रहा तो उत्तर प्रदेश में फरवरी-मार्च के बीच में विधानसभा चुनाव होंगे और तकरीबन दिसम्बर 2021 – जनवरी 2022के बीच चुनावी तारीख घोषित होने की संभावना है। 75 जिलों और 403 विधानसभा सीटों वाले इस बड़े चुनाव की तैयारी के लिए अब ज्यादा समय नहीं बचा है। ऐसे में कुछ छोटे दल जहां भाजपा और सपा के गठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं वहीं बहुत सारे छोटे दल बड़े दलों के वोट बैंक का प्यार और विश्वास बांटने के लिए सौतन की तरह तैयार है।