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जनसंख्या नियंत्रण कानून से पैदा होंगी कई परेशानियां ये सिर्फ राजनीतिक हथियार

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने एक बार फिर से एक ऐसा ऐलान कर दिया है, जो विवाद को जन्म दे रहा है। असल में ये विवाद बेतुका सा लग रहा है, क्योंकि इसमें विपक्ष पूरी तरह से ढीला नजर आ रहा है। योगी आदित्यनाथ की सरकार ने उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने का ऐलान कर दिया है और इसकी तैयारी शुरु कर दी है। इससे पहले असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने भी राज्य में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने की औपचारिक घोषणा की थी। सरमा ने बढ़ती जनसंख्या को सामाजिक संकट के तौर पर पेश किया था।

इन दोनों राज्य सरकारों के ऐलान के बाद फिर से पूरे देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने की हिमायत की जाने लगी है। वैसे, भारत में कई राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू किया जा चुका है। जिसके अंतर्गत 2 से ज्यादा बच्चे होने पर लोगों को कुछ सरकारी सुविधाओं और पंचायत से लेकर नगर पालिका के चुनाव लड़ने तक की इजाजत नहीं दी जाती है। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कर दिया था कि देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू नहीं किया जाएगा। मोदी सरकार का कहना था कि वो देश के नागरिकों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने के विचार की विरोधी है। इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भारत में बढ़ती जनसंख्या सामाजिक संकट है या राजनीतिक?

क्या कहते हैं आंकड़ें?

भारत में लंबे समय से चीन की तर्ज पर जनसंख्या नियंत्रण (Population Control) को लेकर कानून बनाने की मांग की जाती रही है। लेकिन, बीते कुछ सालों में चीन ने इस कानून में बदलाव किए हैं। साल 2016 में चीन ने ‘One Child Policy‘ को बदलते हुए ‘Two Child Policy‘ कर दिया था और फिर इसे भी बदलकर इसी साल वहां इसे ‘थ्री चाइल्ड पॉलिसी’ में बदल दिया गया है। आंकड़ों के अनुसार, भारत आबादी के मामले में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। 135 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या को देखते हुए भारत में जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग उठती रहती है।

पहले भी भारत में हम दो, हमारे दो के नारे और परिवार नियोजन के लिए कार्यक्रम आयोजन करवाती रही है। बीते कुछ दशकों में भारत में साक्षरता दर बढ़ने के साथ प्रजनन दर में कमी दर्ज की गई है। साल 2000 में प्रजनन दर 3.2 फीसदी था, जो 2016 में 2.4 फीसदी पहुंच गया था। और हाल ही में वो 2.1 हो गया है। भारत में जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ रही है, बड़ी संख्या में लोग बच्चे पैदा करने से पहले सभी स्थितियों का आंकलन कर अपनी फैमिली प्लानिंग करते हैं। इसका सीधा असर प्रजनन दर पर पड़ता है। भारत में जनसंख्या में वृद्धि की दर 1990 में 2.07 फीसदी थी, जो 2019 में 1.0 फीसदी पर आ चुकी है।

जनसंख्या को लेकर हुए हैं कई शोध

मेडिकल जर्नल लांसेट के एक शोध में अनुमान लगाया गया था कि 21वीं सदी के अंत दुनिया में जनसंख्या का क्या हाल रहेगा। इस शोध में कहा गया था कि 21वीं सदी के आखिर में भारत की जनसंख्या 109 करोड़ ही रह जाएगी। इस शोध के नतीजों को पाने के लिए लांसेट ने 15 साल से लेकर 49 साल तक की महिलाओं की प्रजनन दर के साथ साक्षरता, परिवार नियोजन आदि मानकों को शामिल किया था।

जिसके आधार पर लांसेट ने दावा किया था कि भारत में जनसंख्या वृद्धि (Population Growth) बहुत बड़ी समस्या नहीं है। हालांकि इस शोध में कहा गया था कि साल 2048 तक भारत की जनसंख्या करीब 160 करोड़ तक पहुंच सकती है। लेकिन, इसके बाद जनसंख्या में कमी दर्ज की जाने लगेगी और इस शोध में कहा गया है कि 2048 के बाद भारत में प्रजनन दर गिरकर 1.29 फीसदी तक आ जाएगी।

कानून को लेकर उठती रही है राजनीतिक मांग

जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए समय-समय पर राजनीतिक दलों की ओर से कानून बनाने मांग की जाती रही है। साल 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद इस तरह की मांग में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। 15 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भाषण देते हुए कहा था कि भारत में जो जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, वो आने वाली पीढ़ी के लिए अनेक संकट पैदा करेगा।

लेकिन ये भी मानना होगा कि देश का एक जागरूक वर्ग इससे होने वाली समस्याओं को समझते हुए अपने परिवार को सीमित रखता है। ये लोग एक तरह से देशभक्ति का ही प्रदर्शन करते हैं। बीते साल RSS प्रमुख मोहन भागवत ने भी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर नीति बनाने की सलाह दी थी। भाजपा के कई नेता वक्त वक्त पर इस मामले को उठाते रहते हैं।

वहीं, हाल ही में असम में लागू होने वाले जनसंख्या नियंत्रण कानून पर नजर डालें, तो इसमें साफ किया गया है कि राज्य के चाय के बागानों में काम करने वाले अनुसूचित जाति एवं जनजाति से जुड़े लोगों पर ये नीति और नियम लागू नहीं होंगे। भारत में धर्म और जाति की राजनीति अपने चरम पर है और अगर कोई नियम बनाया जाता है, तो संविधान के हिसाब से वो सभी लोगों पर लागू होना चाहिए।

लेकिन, सरकारें अपनी वोटबैंक पॉलिटिक्स को साधने के लिए इन नियमों में कुछ खास लोगों को छूट देती हैं। मिजोरम के एक मंत्री ने अपने विधानसभा क्षेत्र में सबसे ज्यादा बच्चों वाले परिवार को एक लाख रुपये देने की घोषणा की है। गौरतलब है कि मिजोरम में जनसंख्या घनत्व काफी कम है और इस स्थिति में शायद कहना गलत नहीं होगा कि जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग पूरी तरह से राजनीतिक है।

राजनीति ने लोगों में बनाई गलत धारणा

देश में लोगों के बीच ये आम धारणा बन चुकी है कि मुस्लिम धर्म से जुड़े लोग ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। भारत में गरीब और अशिक्षित तबकों से आने वाले ज्यादातर परिवारों में बच्चों की संख्या का अनुपात किसी शहरी या शिक्षित परिवार की तुलना में ज्यादा ही रहता है। गांवों में रहने वाले परिवारों में बच्चों की संख्या दो से ज्यादा होना आम सी बात है। हालांकि, कुछ सालों में इसमें कमी दर्ज की गई है और ये साक्षरता और जागरुकता आने की वजह से हुआ है।

आंकड़ों के अनुसार, 2001 में हिंदुओं की जनसंख्या में वृद्धि दर 19.92 फीसदी थी। जो कि साल 2011 में घटकर 16.76 फीसदी पर आ गई थी. इसी तरह 2001 में मुस्लिम जनसंख्या में जो वृद्धि दर 29.5 फीसदी थी, वो साल 2011 में गिरकर 24.6 फीसदी हो गया था। मुस्लिमों में जनसंख्या की वृद्धि दर हिंदुओं की तुलना में करीब 8 फीसदी ज्यादा है। जबकि, आंकड़ों के लिहाज से मुस्लिमों में जनसंख्या की वृद्धि दर ज्यादा कम हुई है। लेकिन, नेताओं द्वारा ऐसा माहौल बनाया जाता है कि मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही है, जो गलत है।

क्या भारत में जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून

भारत में गरीबी, अशिक्षा और जातीय राजनीति की वजह से जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने का कोई फायदा नजर नहीं आता है। लोगों को जागरुक और शिक्षित कर ही इस मामले का हल निकाला जा सकता है। भारत के तकरीबन हर परिवार में लोगों की संतान के तौर पर पहली पसंद लड़का ही होता है। इस स्थिति में जनसंख्या नियंत्रण कानून से लड़कियों को गर्भ में ही मारने की घटनाएं बढ़ने का खतरा बढ़ सकता है। जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने से पहले सरकार को इसके दुष्प्रभावों को लेकर लोगों में व्यापक जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है।