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चंद्रशेखर आजाद की मां के साथ जो हुआ, क्या जानते हैं आप?

चंद्रशेखर आजाद ने यह कसम खाई थी कि जीते-जी उनके शरीर को अंग्रेज हाथ भी नहीं लगा सकते। जब प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया था
Information Anupam Kumari 1 December 2019

भारत को आजादी दिलाने में महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की क्या भूमिका रही, यह किसी से छुपी नहीं है। चंद्रशेखर आजाद ने यह कसम खाई थी कि जीते-जी उनके शरीर को अंग्रेज हाथ भी नहीं लगा सकते। जब प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों ने उन्हें 27 फरवरी, 1931 को घेर लिया था, तब काफी देर तक मुकाबला करने के बाद अंतिम गोली बचने पर उन्होंने खुद को यह गोली मार ली थी और मातृभूमि के लिए हुए शहीद हो गए थे। चंद्रशेखर आजाद की मां को जब यह पता चला कि उनका बेटा शहीद हो गया है तो उनके ऊपर गम का पहाड़ टूट पड़ा। इस लेख में हम आपको बता रहे हैं कि चंद्रशेखर आजाद की शहादत के बाद उनकी मां जगरानी देवी की जिंदगी कैसे बीती?

चंद्रशेखर आजाद के साथ आजादी के संघर्ष में सदाशिव राव की भी बड़ी भूमिका रही थी। चंद्रशेखर आजाद के सबसे विश्वसनीय लोगों में से वे एक थे। आजाद भले ही शहीद हो गए, लेकिन इसके बाद भी सदाशिव ने अंग्रेजो के खिलाफ अपना संघर्ष जारी रखा और जेल तक गए। जब भारत को अंग्रेजों से आजादी मिल गई तो वे चंद्रशेखर आजाद के मां-बाप का हाल जानने के लिए उनके गांव पहुंचे। वहां उन्हें पता चला कि आजाद के पिता उनकी शहादत के कुछ वर्षों के बाद ही चल बसे थे। आजाद के भाई की भी मौत उनसे पहले ही हो गई थी। बेहद गरीबी में उनकी मां का जीवन बीत रहा था। वे खुद जंगल से लकड़ियां काट कर लाती थीं और ज्वार-बाजरा का घोल बनाकर पीती थीं। बता दें कि उस वक्त ज्वार-बाजरा को मोटा अनाज कहा जाता था और इसे बड़ी ही उपेक्षित नजरों से देखा जाता था। गेहूं तक से इनका मूल्य बेहद कम था।

सदाशिव राव ने किया अंतिम संस्कार

चंद्रशेखर आजाद के मां की यह हालत देखकर सदाशिव राव को बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उनसे अपने साथ चलने का अनुरोध किया, लेकिन नहीं मानने पर उन्होंने चंद्रशेखर आजाद को दिए गए वचन का वास्ता दिया। तब जाकर स्वाभिमानी मां उनके साथ जाने के लिए तैयार हुईं। सदाशिव राव का भी अपने गांव में घर टूटा-फूटा और छोटा था तो उन्होंने भगवान दास माहौर नामक अपने एक दोस्त के घर में आजाद की मां के रहने का इंतजाम कर दिया। आजाद की मां का निधन मार्च, 1951 में झांसी में हुआ। उनका अंतिम संस्कार भी सदाशिव राव ने किया।

मूर्ति स्थापित करने का प्रयास

आजाद की मां के नहीं रहने के बाद उनकी स्मृति में जब झांसी के लोगों ने एक सार्वजनिक जगह पर उनके नाम से पीठ का निर्माण किया तो तत्कालीन सरकार ने उसे अवैध घोषित कर दिया। इसके बाद यहां के देशभक्त नागरिकों ने इसके बगल में उनकी मां की मूर्ति स्थापित करने का निर्णय ले लिया। चंद्रशेखर आजाद के कभी खास सहयोगी रह चुके कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह ने इस प्रतिमा को तैयार भी कर दिया। सरकार को इस बात की जानकारी मिलने पर मूर्ति की स्थापना को उस वक्त देश, समाज एवं झांसी के कानून-व्यवस्था के लिए खतरा घोषित करके इस कार्यक्रम को न केवल प्रतिबंधित किया गया, बल्कि शहर में कर्फ्यू भी लगा दिया गया। इसके बावजूद सदाशिव राव अपने सिर पर चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति रखकर मूर्ति की स्थापना के लिए निकल गए और कह दिया कि देश के लिए अपने प्राण-न्योछावर कर देने वाले आजाद की मां के लिए यदि उन्हें अपने प्राण तक कुर्बान करने पड़े तो उन्हें हिचक नहीं होगी।

मूर्ति लगाने का विरोध

किताब ‘Indian Revolutionaries: A comprehensive study 1757-1961, Volume 3’ में इस बात का उल्लेख किया गया है कि जब सदाशिव राव चंद्रशेखर आजाद की माता की मूर्ति अपने सिर पर लेकर इसकी स्थापना के लिए निकले थे तो उन पर गोली चलाने तक का आदेश दिया गया था, लेकिन हजारों लोगों की भीड़ से घिरा होने की वजह से यह संभव नहीं हो पाया था। ऐसा कहा जाता है कि उस वक्त भीड़ और पुलिस के बीच भिड़ंत भी हो गई थी। इस दौरान पुलिस को गोलियां तक चलानी पड़ी थी। इसमें बहुत से लोग घायल हो गए थे और कई लोग जीवनभर के लिए निःशक्त भी हो गए थे। बताया जाता है कि इस दौरान तीन लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी थी। इस तरह से चंद्रशेखर आजाद, जिन्होंने अपनी जिंदगी इस देश के लिए कुर्बान कर दी, उनकी मां की मूर्ति स्थापित नहीं की जा सकी। यही नहीं, रास्ते में आने-जाने वाले लोगों की प्यास बुझाने के लिए उनकी याद में जो प्याऊ बनाया गया था,उसे भी ध्वस्त कर दिया गया था।

भारत के इतने महान क्रांतिकारी की मां के साथ हुए इस तरह के व्यवहार की कहानी झकझोर कर रख देती है। यही नहीं झांसी के जिस श्मशान घाट पर चंद्रशेखर आजाद की मां का अंतिम संस्कार सदाशिवराव ने किया था, वहां उस तरह का स्मारक अब तक नहीं बन सका है जैसा कि बनना चाहिए था।

Anupam Kumari

Anupam Kumari

मेरी कलम ही मेरी पहचान