भारतीय जनता पार्टी की सबसे पुरानी सहयोगी और एनडीए के घटक दलों में सबसे बड़ी पार्टी शिवसेना ने साथ छोड़ दिया है। भाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना को मनाने की कुछ खास कोशिश भी नहीं की। वहीं झारखंड में भाजपा ने सीटों के बंटवारे की मांग खारिज कर दिया, तो ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन ने अपने दम पर चुनाव लड़ने का मन बना लिया है। इस पर भी भाजपा ने कुछ खास कोशिश नहीं की। इस साल जुलाई में कांग्रेस के विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने गोवा फॉरवर्ड पार्टी के मंत्रियों को अपने कैबिनेट से बाहर कर दिया। गोवा फॉरवर्ड को एनडीए से बाहर खदेड़ दिया गया। इतना ही नहीं, भाजपा ने एनडीए के कई और घटक दलों से किनारा कर लिया है। पार्टी ने न तो झारखंड में जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है। वहीं हरियाणा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल के साथ कोई साझेदारी नहीं की थी।
भाजपा का ये कदम कई सवाल खड़े करता है
यहां पर दो सवाल खड़े होते हैं एक तो भाजपा अपने घटक दलों को किनारा क्यों कर रही है? और दूसरा भाजपा अब किस साथी दल से पीछा छुड़ाने जा रही है? दरअसल इसे समझने के लिए भाजपा के अपने गुणा-भाग पर ध्यान देना जरूरी होगा। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 37.8 फीसदी वोट हासिल किए। पार्टी 436 सीटों पर चुनाव लड़ी और इन सीटों पर इसका वोट शेयर करीब 47 फीसदी रहा। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में भाजपा को काफी ज्यादा दिक्कत आ रही है। हिंदुत्ववादी पहचान की वजह से मुसलमान, सिख और ईसाईयों के बीच में भाजपा अपनी जगह नहीं बना पा रही है। इसलिए भाजपा के पास अब एक ही विकल्प बचा है, वो है हिंदू वोटबैंक को और मजबूत करना और ऐसा तभी मुमकिन है, जब वो अपने ही घटक दलों के जनाधार में सेंध लगाती है।
हिंदू वोटबैंक नहीं दे रहा घटक दलों का साथ
उच्च हिंदू जातियों में भाजपा का वोट शेयर जहां 2014 में 47 फीसदी था, 2019 में ये आंकड़ा बढ़कर 52 फीसदी हो गया, तो वहीं गठबंधन के दूसरे दलों का प्रदर्शन इस दौरान 9 फीसदी से गिरकर 7 फीसदी तक पहुंच गया। इससे पता चलता है कि ऊंची जातियों में भाजपा के मुकाबले उसके घटक दलों का दबदबा बेहद कम है। ठीक ऐसा ही हिंदू अनुसूचित जनजातियों में देखा गया। जहां भाजपा का वोट शेयर 37 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया, इसके साथी दलों का वोट शेयर 3 फीसदी से घटकर 2 फीसदी हो गया। हिंदू ओबीसी के वोटरों में भाजपा का शेयर 10 फीसदी उछला, 2014 में 34 फीसदी के मुकाबले यह आंकड़ा 2019 में 44 फीसदी तक पहुंच गया, जबकि घटक दलों के वोट शेयर में सिर्फ 2 फीसदी का इजाफा हुआ है।
महाराष्ट्र में शिवसेना को गठबंधन से जाने देने का फैसला भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भाजपा और शिवसेना दोनों के हिंदुत्ववादी पार्टी होने की वजह से महाराष्ट्र में इनके जनाधार में कोई खास अंतर नहीं रहा है।भाजपा को उम्मीद है कि अगर शिवसेना अपने सिद्धांतों से समझौता कर कांग्रेस और एनसीपी जैसी ‘सेक्युलर’ पार्टियों के साथ सरकार बनाती है, तो उसके लिए शिवसेना के वोटबैंक के बड़े हिस्से पर कब्जा करना आसान हो जाएगा। इसी रणनीति के तहत भाजपा ने गोवा में गोवा फॉरवर्ड पार्टी से हाथ धो लिया और झारखंड में AJSU की मांगों को मानने से इनकार कर दिया। गोवा फॉरवर्ड पूर्व भाजपा और कांग्रेस के नेताओं की पार्टी है जिनका जनाधार भाजपा से ज्यादा अलग नहीं है। ठीक वैसे ही AJSU के समर्थकों में ज्यादातर OBC और आदिवासी हैं, जिनमें भाजपा की पैठ बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है।
अब गठबंधन के किस दल की बारी है?
भाजपा अब अपने घटक दलों में से किसे दरकिनार करेगी ये बहुत अधिक तक उस पार्टी के जनाधार के खिसकने की संभावना पर निर्भर करता है। इनमें पंजाब का शिरोमणि अकाली दल, नागालैंड की NDPP और मेघालय की NPP शामिल है। गैर-हिंदू समुदायों में इन पार्टियों की अच्छी पैठ होने की वजह से भाजपा के लिए यहां पर ज्यादा कुछ हासिल होने की संभावना नहीं है।