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क्यों सिर्फ राहुल गांधी को नेपोटिज्म का नतीजा कहा जाता है?

परिवारवाद ये एक ऐसा शब्द है जो हर थोड़े दिनों में सुन लिया जाता है। कभी चुनावी रैलियों में तो कभी टीवी बहस में, इतना ही नहीं कुछ अरसे से तो ये बॉलीवुड में भी आम हो गया है। परिवारवाद यानी नेपोटिज्म को तूल मिला सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से। जी हां पहले तो बॉलीवुड में फैले परिवारवाद के लिए कई अभिनेता निशाने पर आए। लेकिन ये बॉलीवुड से बाहर निकल कर क्रिकेट तक पहुंचा और हमेशा की तरह राजनीति में भी घुस गया है।

हर बार की तरह फिर से भाजपा की तरफ से परिवारवाद को लेकर गांधी परिवार को घेरा जाता है। इसके सबसे बड़े शिकार होते हैं राहुल गांधी। अभी हाल ही में सचिन पायलट की वजह से राजस्थान की सियासत में घमासान मचा हुआ है। इससे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्य प्रदेश की सरकार पलट दी थी। दोनों बार ये आरोप लगा कि कांग्रेस में गांधी परिवार का ही दबदबा है और ये पार्टी परिवारवाद से घिरी हुई है।

सचिन और ज्योतिरादित्य परिवारवाद के बिना यहां होते?

हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी परिवारवाद से घिरी हुई हो, नेपोटिज्म की जड़ हो लेकिन क्या सचिन पायलट या सिंधिया ने जो मुकाम पाया था वो अपने दम पर हासिल किया था? अचानक से सोशल मीडिया पर इन दोनों नेताओं के लिए लोगों को हमदर्दी आ जाती है। और जब बात नेपोटिज्म की आती है तो ये दोनों नेता भी ऊपर से लेकर नीचे तक परिवारवाद का ही कारण है। अगर माधवराव सिंधिया इतने बड़े नेता नहीं होते तो क्या ज्योतिरादित्य की ये जगह होती? या फिर राजेश पायलट के बिना सचिन अपनी जगह बना पाते? तो जब परिवारवाद की बात आती है तो क्यों हर बार राहुल गांधी को ही टारगेट किया जाता है?

ज्योतिरादित्य सिंधिया की दोनों बुआएं वसुंधरा और यशोधरा क्या विजयाराजे सिंधिया की वजह से आज राज नहीं करती है? क्या राज घरानों से ताल्लुक होने की वजह से ही ज्योतिरादित्य और वसुंधरा का इतना बड़ा राजनीतिक कद नहीं है? क्या सिर्फ गांधी परिवार की ही पीढ़ियों को हम देखेंगे? सिंधिया परिवार को हम पाक कह देंगे क्योंकि अब बुआ और भतीजा दोनों ही भाजपा में है। सचिन पायलट कांग्रेस में थे तो नेपोटिज्म और जब कांग्रेस के खिलाफ कहते हैं तो उनके लिए सहानुभुति क्यों? ये दोगला चरित्र कहां से आता है?

भाजपा का नेपोटिज्म कहां जाता है?

कांग्रेस को तो हम गांधी परिवार से जोड़ देते हैं, लेकिन भाजपा में पनपने वाले नेपोटिज्म पर चुप्पी रहती है। क्या जय शाह का सौरव गांगूली से ऊपर के पद पर जा कर बीसीसीआई में बैठना उचित था?

क्या पंकज सिंह, अनुराग ठाकुर अपने पिता की वजह से राजनीति में इतने ऊंचे पदों पर नहीं है?क्या आपको पता है कि पीयूष गोयल, रविशंकर प्रसाद के पिता भी अटल बिहारी वाजपेयी के साथ राजनीति का हिस्सा थे? गांधी परिवार को तो तुगलक कह देते हैं लेकिन उसी गांधी परिवार की बहु को केंद्रीय मंत्री बनाते हैं, जी हां मेनका गांधी भी तो संजय गांधी की पत्नी है वही संजय गांधी जो इंदिरा गांधी के बेटे थे, अब इनके बेटे वरुण गांधी की राजनीति जो फल फूल रही है उसमें गांधी परिवार का तो हाथ है नहीं?

पंकजा मुंडे, पुनम महाजन भी तो अपने पिता के नाम का ही इस्तेमाल कर राजनीति में आई थी। बिहार में लालू परिवार पर आरोप लगता है तो सीपी ठाकुर के बेटे विवेक ठाकुर, अश्विनी चौबे के बेटे अर्जित शाश्वत और हुकुमदेव नारायण यादव के बेटे अशोक कुमार यादव को भी तो पिछली बार बिहार में चुनाव लड़वाया था। रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के लिए तो कोई नहीं कहता कि वो नेपोटिज्म से राजनीति में आए।

सालों तक जिस महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा का गठबंधन था या फिर शिवसेना के साथ सरकार का हिस्सा रहने वाली भाजपा को नेपोटिज्म नहीं दिखा था और ना ही सोशल मीडिया पर हंगामा मचा था। पंजाब भी दूर नहीं है सालों से पंजाब की सियासत में अकाली दल का दबदबा है और ये पार्टी अपने परिवार के मोह को नहीं छोड़ पा रही है। प्रकाश सिंह बादल फिर उनके बेटे सुखबीर, बादल खानदान की बहु तो केंद्रीय मंत्री भी है।

हर पार्टी या तो वन मैन शो करती है या फिर परिवारवाद

आप किसी पार्टी पर परिवारवाद का आरोप लगा रहे हैं तो उस पार्टी को भी देखिये जिसमें आप है या जिसके समर्थक है। आज भाजपा का मतलब मोदी-शाह और कांग्रेस का मतलब गांधी परिवार रह गया है तो वहीं राजद (लालू परिवार), सपा (मुलायम परिवार), अकाली दल (बादल परिवार), नेशनल कॉन्फ्रेंस (अब्दुल्ला परिवार), एनसीपी (पवार परिवार), डीएमके (करुणानिधि परिवार), बसपा (मायावती), आम आदमी पार्टी (केजरीवाल), जेडीयू (नीतीश कुमार), शिव सेना (ठाकरे परिवार), बीजू जनता दल (पटनायक परिवार), तृणमूल कांग्रेस (ममता बनर्जी)।

इनमें से आप किसके परिवारवाद या व्यक्तिवाद के समर्थन में खड़े होंगे और क्यों?

अगर परिवारवाद या वन मैन शो बुरा है तो फिर सिर्फ कांग्रेस का ही क्यों बुरा है बाकी दलों को हम क्यों दरकिनार कर देते हैं?