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क्यों सीवर साफ करने वालों के लिए बेअसर है विज्ञान

हमारा देश चांद, तारों पर पहुंच रहा है, मंगल पर जीवन खोज रहा है और जो लोग इस देश में रहते हैं, उन्हें कोई पूछता नहीं है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि अंतरिक्ष में शोध और अध्ययन के लिए उच्च क्षमता की टेकनॉलजी का इस्तेमाल किया जा रहा है और हमारे देश में जो लोग सीवर की सफाई करते हैं उनके लिए कोई मौजूदा इंतजाम नहीं हैं, जिस हालत में वो काम कर रहे हैं उससे उन इंसानों की जान चली जा रही है। जाहिर है कि ये राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी का ही एक उदाहरण है कि जिन कामों में मशीनों की जरूरत सबसे ज्यादा होनी चाहिए वो आज भी साधारण लोगों के बूते पर चल रहे हैं और अक्सर उनके मरने की खबरें आना एक आम बात सी हो गई हैं।

गाजियाबाद में मारे गए 5 मजदूर

22 अगस्त को ही गाजियाबाद के नंदग्राम इलाके में एक सीवर लाइन की सफाई करते हुए दम घुटने की वजह से 5 मजदूरों की मौत हो गई। ऐसी तमाम घटनाओं की तरह एक बार फिर से इसे भी आम दुर्घटना के रूप में ही लिया गया और एक रिवायत की तरह मुआवजा और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कह दी गई है। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद शायद फिर से सब कुछ पहले की तरह चलने लगेगा। लेकिन सवाल है कि घातक जोखिम के अलावा इस काम के संबंध में तमाम कानूनी व्यवस्था के बावजूद अगर जानलेवा सफाई में लोगों को झोंका जा रहा है और उनकी जान जा रही है तो क्या इसे एक तरीके से हम हत्या नहीं कहेंगे।

हाल ही में एक अध्ययन सामने आया जिसके मुताबिक सिर्फ इस साल के पहले 6 महीनों में ही सीवर की सफाई करते वक्त 50 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है। इसके अलावा आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक पिछले लगभग 25 सालों में करीब सवा छह सौ लोग इसी काम की वजह से मारे गए है। आखिर इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और इससे संबंधित कानूनों के लागू होने के बावजूद ये काम सरेआम कैसे चलता रहा है? ऐसी घटनाओं में लगातार होने वाली मौतों के बावजूद सीवर की सफाई का वही पुराना तौर-तरीका कैसे अपनाया जा रहा है?

क्या सरकार सख्त कदम नहीं लेती

यह किसी से छिपा नहीं है कि हर कुछ रोज के बाद देश के किसी न किसी हिस्से से सीवर की सफाई के दौरान लोगों के मरने की खबरें खुलेआम सामने आती रहती हैं। इस तरह की हर घटना के बाद राहत और कार्रवाई का सरकारों के द्वारा भरोसा भी दिया जाता है, लेकिन इन भरोसों के बाद भी कोई फर्क नजर नहीं आता है। मंत्री से लेकर संत्री तक सब इस मामले में अपनी आंखें फेर कर बैठे हैं, सरकारों को पता होते हुए भी गूंगे बहरों की तरह पेश आती है। 10 लाख का मुआवजा दिया जाएगा और ज्यादा से ज्यादा परिवार में किसी एक को चपरासी की नौकरी दे दी जाएगी, लेकिन उस पूरे परिवार का क्या होगा? उस मरने वाले इंसान के छोटे बच्चे हो सकते हैं, जिनके सिर से बाप का साया उठ गया होगा। हो सकता है कि उसके बेटे को नौकरी मिल जाएं, लेकिन क्या वो एख चपरासी बन कर परिवार का बोझ उठाना चाहेगा, हो सकता है कि वो एक डॉक्टर बनना चाहता हो, मौत सिर्फ उस कर्मचारी की नहीं हुई जो सीवर साफ करते वक्त मरा, लेकिन उसका पूरा परिवार हो सकता है उसके साथ खत्म हो गया हो, सपने, उम्मीदें सब खत्म होता है।विज्ञान

एक बड़ी समस्या ये भी है कि ऐसी हर घटना में आमतौर पर जिम्मेदार ठेकेदारों को शायद ही कभी ऐसी सजा हो पाती है जिससे बाकी लोगों को सबक मिल सकें। इसी वजह से सरकार के स्तर पर सीवर की सफाई का काम ठेकेदारों को सौंपा जाता है और वो बिना किसी संकोच या डर के सफाई मजदूरों को बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के भारी जोखिम के बीच जहरीली गैसों से भरे सीवर के बीच में उतार देते हैं। कानूनन गलत और अमानवीय होने के बावजूद क्या ये सब इसलिए चल रहा है कि इस काम में लगे मजदूर आमतौर पर सामाजिक पायदान के सबसे निचले हिस्से और कमजोर तबके से आते हैं।

इन लोगों के लिए क्यों बेअसर है विज्ञान

सवाल ये भी है कि हम विज्ञान की शानदार कामयाबियों के साथ उच्च स्तर की मशीनों और यंत्रों का निर्माण और उनके उपयोग से बड़ी उपलब्धियां हासिल कर रहे हैं तो सीवर की सफाई के लिए अब तक इंसानों को ही जहरीले गैसों से भरे नालों में मरने के लिए क्यों उतरना पड़ता है? और अगर हम उन्हें उतार भी रहे हैं, तो उनकी सुरक्षा का ध्यान क्यों नहीं रखा जा रहा है। हम बॉर्डर पर लड़ने वाले सिपाही के हाथ में भी बंदूक देते हैं, अपनी सुरक्षा के लिए, तो फिर इन लोगों को क्यों नहीं?