बनारस शहर में इस समय रहना बहुत मुश्किल होगया हैं।आज हम लोग बात करेंगें सड़क के आवारा जानवरों की, क्योकि उनके वजह हर दिन कोई ना कोई घायल होता हैं, कभी-कभी तो मृत्यु तक हो जाती हैं।आवारा कुत्तों की पुरी फौज तैयार हो गयी हैं और इनकी संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही हैं।आये दिन किसी ना किसी को काटते हैं, लेकिन नगर निगम को इनकी सुध नहीं है।आये दिन आवारा साँड़ और बैल लोगों को चोटिल करते हैं, लेकिन नगर निगम के तरफ से इनको खुली छूट हैं इसीतरह से बहुत से गाय, भैस, सूअर सड़को पर घूमते हैं, लेकिन इनको पकड़ने का कोई साधन नहीं है।
अब तो रही सही कसर बंदरों ने निकाल दिया है और आपको अपने ही छत पर नजरबन्द कर रखा है।क्या हमारे नगर निगम का कोई दायित्व नहीं है।सबसे ज़्यादा कुत्तों ने आतंक मचा रखा है और इनकी बढ़ती संख्या लोगों के लिये खतरनाक है।इनके काटने से रैबीज होता हैं, जो कि जानलेवा होता हैं और इसका बचाव सिर्फ इसका टीका हैं, जो कि बड़ी महँगी होती है, सरकारी टीका भी उपलब्ध हैं पर उनका हमेशा शॉर्टेज बना रहता हैं इसलिये मजबूरन लोगों को इसको खरीदना ही होता हैं क्योंकि इसका 24 घंटे के अंदर लगना जरुरी होता हैं नहीं तो कोई फायदा नहीं होगा।
गाय और साँड़ तो कही भी गली में बीच सड़क पर ही डेरा जमा लेती हैं और किसी की क्या हिम्मत जो कोई इन्हें वहा से हटा दें।
अब या तो रास्ता बदलिये या रिस्क लेकर आगे बढ़िए।ये रोज का ही जंझट हैं।कई बार अखबार में इस ओर ध्यान दिलाया गया, लेकिन अभी भी नगर निगम कान में रुई डालकर बैठा हुआ है।
अभी इसीतरह आवारा सुअर भी आते हैं जो कही भी आसानी से नालियों में नजर आ जाएंगे | इसतरह बंदरो की भी समस्या है इनकी भी बढ़ती जनसंख्या सिरदर्द ही है।अब आप ना तो छत पर कपड़े सूखा सकते है और ना ही बागवानी कर सकते है क्योंकि वानरों ने जो आतंक मचा रखा है, इनके काटने पर भी रेबीज ही लगवाना पड़ता हैं।
सुना था २०१४ में बनारस के सांसद जब देश के प्रधानमन्त्री बने तभी उन्होंने नगर निगम को यह कार्य आबंटित किया था और इसके लिए केंद्र सरकार ने १२०० करोड़ रूपये का बजट भी पास किया| लेकिन जमीनी जमा पहनाते पहनाते शायद इन पैसों का कोई भी हिस्सा आम जनता के कार्य में न लगा हो |
इससे पहले भी UPA सरकार ने इस बाबत २००० करोड़ का बजट पास किया और पशु पालन गृह के लिए ३७०० करोड़ रूपये दिए लेकिन कोई भी हरकत नहीं दिखाई दी|
हर बार ये सारी चीजें सिर्फ और सिर्फ कागज के पन्नों तक या बहुत होता है तो किसी प्राइम टाइम के डी एन ए एनालिसिस में दिखा दिया जाता है | लेकिन वास्तव में कितना पैसा आता है और कितना पहुँचता है कम से कम आम जनता को तो नहीं पता
आखिर जनता की जान इतनी सस्ती क्यों है सरकार का इस ओर ध्यान कब जायेगा?