श्रीमद्भगवद्गीता मेरी दृष्टि में एक आध्यात्मिक ग्रन्थ नहीं है .. क्योकि अगर ये आध्यात्मिक ग्रन्थ होता तो शायद गीता शुरू ही नहीं होती| क्योकि ईश्वर के लिए तो अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करना इच्छा मात्र पर निर्भर था|
यह ईश्वर तक ही ले जाने वाला ग्रन्थ है ऐसा भी नहीं , अगर ऐसा होता तो ‘मामेकं शरणम ….’ द्वारा ही गीता का प्रारम्भ एवं अन्त हो जाता| लेकिन ईश्वर के द्वारा ही ये प्रारम्भ किया जा रहा है| गीता विचारो का भी ग्रन्थ नही है केवल मात्र कर्म का ग्रन्थ है जो केवल तुम्हारे विषय मे बात करता है| किन्तु उस समय वह योद्धा नहीं बल्कि एक सामान मनुष्य की तरह बातें कर रहा था|
इसलिए यह मत समझना कि अर्जुन कौन था? ये जानना कि तुम क्या हो और क्या हो सकते हो ? जैसे अर्जुन योद्धा था लेकिन उस समय नही| इसलिए तुम शायद जो हो वो अभी हो | आगे नहीं रहोगे | क्योकि गीता का प्रारंभ यही है |
गीता का प्रारम्भ हो गया अर्जुन कृष्ण से किसी का वध न करने कि बात कह रहे है देखा जाये तो यह विषादपूर्ण अवस्था थी तथा इसका वर्णन विषाद योग नामक प्रथम अध्याय मे ही होना चाहिए क्योकि वह रो कर ईश्वर से प्रार्थना कर रहा कि वह अब उसके इस दुःख मे उसका साथ दे …. लेकिन नही अब कृष्ण उसे कायरता को त्याग कर उठने के लिए कह रहे है|
लेकिन इसके लिए गुरु बनाने कि आवश्यकता क्या थी यह कार्य तो एक मित्र भी कर सकता था लेकिन कृष्ण स्वयं गुरु बनकर एक अधर्मी तथाकथित गुरु के विरुद्ध शस्त्र उठाने के लिए कह रहे है …
बड़ी गहराई है इसमें ..
इसके लिए वह अर्जुन को द्रो ण के पास भेज सकते थे क्योकि शायद द्रोण भी उस समय युद्ध करने का ही आदेश देते लेकिन ऐसा नही हुआ कृष्ण आये स्वयं कि, अब तोड़ दो हर बंधन को कि ईश्वर जैसा गुरु न मिल सकता है जो अंततः तुम्हारे पाप तक को ग्रहण करने की बात कह रहा है क्योकि कृष्ण के अलावा सामर्थ्य ही नही अन्य किसी के पास|
इसका अर्थ यह नही कि गुरु ईश्वर से अधिक महान है , अगर होता तो द्रौपदी अभिमन्यु घटनाये नही होती |
हाँ
वह गुरु ईश्वर अवश्य है जो आ खड़ा हुआ युद्ध के मैदान मे भी सिर्फ तुम्हारे लिए| तुम्हारे यश के लिए, तुम्हारे धर्म के लिए, तुम्हारी वीरता के लिए| सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए जिसने माना नही द्रोंण के समान किसी भी बंधन को |उठा लिया रथ का पहिया तोड़ कर शस्त्र न उठाने कि प्रतिज्ञा को|